मनोरमा ने उन्हें चुप देखकर फिर पूछा-क्या आप भी उन्हें घर से निकाल देते?
चक्रधर-नहीं, मै तो शायद न निकालता ।
मनोरमा-आप निन्दा की जरा भी परवा न करते ?
चक्रघर-नहीं, मैं झूठी निन्दा की परवा न करता ।
मनोरमा की आँखें खुशी से चमक उठीं, प्रफुल्लित होकर बोली-यही बात मेरे भी मन में थी। मैंने दादाजी से, भाई जी से, पण्डितजी से, लौंगी अम्मों से, भाभी से यही शङ्का की, पर सब लोग यही कहते थे कि रामचन्द्र तो भगवान् हैं, उनके विषय में कोई शङ्का हो ही नही सकती। आपने आज मेरे मन की बात कही । मैं जानती थी कि आप यही जवाब देंगे। इसीलिए मैने आपसे पूछा था । अब मै उन लोगो को खूब भाड़े हाथों लूँगी।
उस दिन से मनोरमा को चक्रधर से कुछ स्नेह हो गया। पढ़ने-लिखने से उसे विशेष रुचि हो गयी, चक्रधर उसे जो काम करने को दे जाते, वह उसे अवश्य पूरा करती । पहले की भांति अब हीले-हवाले न करती । जब उनके पाने का समय होता, तो वह पहले ही से आकर बैठ जाती और उनका इन्तजार करती। अब उसे उनसे अपने मन के भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता। वह जानती थी कि कम से कम यहाँ उनका निरादर न होगा, उनकी हसी न उड़ायी जायगी।
ठाकुर हरिसेवकसिह की आदत थी कि पहले दो चार महीनो तक तो नौकरों का वेतन ठीक समय पर दे देते; पर ज्यों ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उसके वेतन की याद भूलती जाती थी। उनके यहाँ कई नौकर ऐसे भी पड़े थे, जिन्होंने बरसों से अपने वेतन नहीं पाये थे । चक्रधर को भी इधर चार महीनों से कुछ न मिला था। न वह आप-ही-आप देते थे, न चक्रधर संकोचवश मांँगते थे। उधर घर मे रोज तकरार होती थी। मुशी वजधर बार बार तकाजे करते, झंझलाते-मॉगते क्यों नहीं ? क्या मुँह मे दही जमाया हुआ है, या काम नहीं करते ? लिहाज भले आदमी का किया जाता है । ऐसे लुच्चो का लिहाज नहीं किया जाता, जो मुफ्त मे काम कराना चाहते हैं । आखिर एक दिन चक्रधर ने विवश हो ठाकुर साहब को एक पुरजा लिखकर अपना वेतन मॉगा। ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ को लिखापढ़ी करने की उन्हें फुरसत न थी और कहा-उनको जो कुछ कहना हो खुद आकर कहें। चक्रधर शरमाते हुए गये और बहुत-कुछ शिष्टाचार के बाद रुपए मांगे । ठाकुर साहब हँसकर बोले-वाह बाबूजी, वाह ! आप भी अच्छे मौजी जीव है । चार महीनों से वेतन नहीं मिला और आपने एक बार भी न मॉगा। अब तो आपके पूरे १२०) हो गये। मेरा हाथ इस वक्त तंग है। जरा दस-पाँच दिन ठहरिए । आपको महीने महीने अपना वितन ले लेना चाहिए था। सोचिए, मुझे एक मुश्त देने में कितनी असुविधा होगी । खैर, जाइये दस पाँच दिन मे रुपये मिल जायेंगे ।