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कौन ! धधकती वेदी ज्वाला,
सामूहिक-बलि का निकला था पंथ निराला।
रक्तोन्मद मनु का न हाथ अब भी रुकता था ,
प्रजा-पक्ष का भी न किंतु साहस झुकता था।
वहीं धर्षिता खड़ी इड़ा सारस्वत-रानी,
वे प्रतिशोध अधीर, रक्त बहता बन पानी।
धूमकेतु-सा चला रुद्र नाराच भयंकर ,
लिये पूंछ में ज्वाला अपनी अति प्रलयंकर।
अंतरिक्ष में महाशक्ति हुंकार कर उठी
सब शस्त्रों की धारें भीषण वेग भर उठीं।
और गिरीं मनु पर, मुर्मूर्ष वे गिरे वहीं पर,
रक्त नदी की बाढ़—फैलती थी उस भू पर।
86 / कामायनी