किंतु रोक ली गयी भुजाओं से मनु की वह ,
निस्सहाय हो दीन-दृष्टि देखती रही वह ।
"यह सारस्वत देश तुम्हारा तुम हो रानी ,
मुझको अपना अस्त्र बना करती मनमानी ।
यह छल चलने में अब पंगु हुआ सा समझो ,
मुझको भी अब मुक्त जाल से अपने समझो ।
शासन की यह प्रगति सहज ही अभी रुकेगी ,
क्योंकि दासता मुझसे अब तो हो न सकेगी ।
मैं शासक, मैं चिर स्वतंत्र, तुम पर भी मेरा--
हो अधिकार असीम सफल हो जीवन मेरा ।
छिन्न भिन्न अन्यथा हुई जाती है पल में ,
सकल व्यवस्था अभी जाय डूबती अतल में ।
देख रहा हूँ वसुधा का अति-भय से कंपन ,
और सुन रहा हूँ नभ का यह निर्मम-क्रंदन !
किंतु आज तुम बंदी हो मेरी बांहों में ,
मेरी छाती में,"--फिर सब डूबा आहों में !
'सिंहद्वार अरराया जनता भीतर आयी ,
"मेरी रानी" उसने जो चीत्कार मचायी ।
अपनी दुर्बलता में मनु तब हाँफ रहे थे ,
स्खलन विकंपित पद वे अब भी काँप रहे थे ,
सजग हुए मनु वज्र-खचित ले राजदंड तब ,
और पुकारा "तो सुन लो जो कहता हूं अब ।
"तुम्हें तृप्ति कर सुख के साधन सकल बताया ,
मैंने ही श्रम-भाग किया फिर वर्ग बनाया ।
कामायनी / 83