यह नर्तन उन्मुक्त विश्व का स्पंदन द्रुततर,
गतिमय होता चला जा रहा अपने लय पर ।
कभी-कभी हम वही देखते पुनरावर्त्तन ,
उसे मानते नियम चल रहा जिससे जीवन ।
रुदन हास बन किंतु पलक में छलक रहे हैं ,
शत-शत प्राण विमुक्ति खोजते ललक रहे हैं ।
जीवन में अभिशाप शाप में ताप भरा है ,
इस विनाश में सृष्टि-कुंज हो रहा हरा है ।
विश्व बंधा है एक नियम से यह पुकार-सी ,
फली गयी है इसके मन में दृढ़ प्रचार-सी ,
नियम इन्होंने परखा फिर सुख-साधन जाना ।
वशी नियामक रहे, न ऐसा मैंने माना ।
मैं चिर-बंधन-हीन मृत्यु-सीमा-उल्लंघन--
करता सतत चलूँगा यह मेरा है दृढ़ प्रण ।
महानाश की सृष्टि बीच जो क्षण हो अपना ,
चेतनता की तुष्टि वही है फिर सब सपना ।"
प्रगतिशील मन रुका एक क्षण करवट लेकर ,
देखा अविचल इड़ा खड़ी फिर सब कुछ देकर !
और कह रही "किंतु नियामक नियम न माने ,
तो फिर सब कुछ नष्ट हुआ सा निश्चय जाने ।"
"ऐं तुम फिर भी यहाँ आज कैसे चल आयी,
क्या कुछ और उपद्रव की है बात समायी।
78 / कामायनी