स्वप्न
संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती ,
मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती !
क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से ,
कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती ।
कामायनी-कुसुम वसुधा पर पड़ी, न वह मकरंद रहा ,
एक चित्र बस रेखाओं का, अब उसमें है रंग कहाँ !
वह प्रभात का हीन कला शशि—-किरन कहाँ चाँदनी रही ,
कह संध्या थी--रवि, शशि, तारा ये सब कोई नहीं जहाँ।
जहाँ तामरस इंदीवर या सित शतदल हैं मुरझाये--
अपने नालों पर, वह सरसी श्रद्धा थी, न मधुप आये ,
वह जलधर जिसमें चपला या श्यामलता का नाम नहीं ,
शिशिर-कला की क्षीण-स्रोत वह जो हिमतल में जम जाये।
एक मौन वेदना विजन की, झिल्ली की झनकार नहीं ,
जगती की अस्पष्ट-उपेक्षा, एक कसक साकार रही ।
हरित-कुंज की छाया भर--थी वसुधा-आलिंगन करती ,
वह छोटी सी विरह-नदी थी जिसका है अब पार नहीं ।
नील गगन में उड़ती-उड़ती विहग-बालिका सी किरन ,
स्वप्न-लोक को चलीं थकी सी नींद-सेज पर जा गिरने ।
66 / कामायनी