"तुम फूल उठोगी लतिका सी कंपित कर सुख सौरभ तरंग ,
मैं सुरभि खोजता भटकूँगा वन-वन बन कस्तूरी कुरंग।
यह जलन नहीं सह सकता मैं चाहिए मुझे मेरा ममत्व ,
इस पंचभूत की रचना में मैं रमण करूँ बन एक तत्त्व।
यह द्वैत, अरे यह द्विविधा तो है प्रेम बाँटने का प्रकार।
भिक्षुक मैं ! ना, यह कभी नहीं मैं लौटा लूँगा निज विचार।
तुम दानशीलता से अपनी बन सजल जलद वितरो न बिन्दु ।
इस सुख-नभ में मैं विचरूँगा बन सकल कलाधर शरद-इंदु ।
भूले से कभी निहारोगी कर आकर्षणमय हास एक ;
मायाविनि ! मैं न उसे लूँगा वरदान समझ कर—जानु टेक ।
इस दीन अनुग्रह का मुझ पर तुम बोझ डालने में समर्थ--
अपने को मत समझो श्रद्घे ! होगा प्रयास यह सदा व्यर्थ ।
तुम अपने सुख से सुखी रहो मुझको दुःख पाने दो स्वतंत्र ,
'मन की परवशता महा-दुःख' मैं यही जपूँगा महासंभ !
लो चला आज मैं छोड़ यहीं संचित संवेदन-भार-पुंज,
मुझको काँटे ही मिलें धन्य ! हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।”
कह, ज्वलनशील अंतर लेकर मनु चले गये, या शून्य प्रांत
“रुक जा, सुन ले ओ निर्मोही !” वह कहती रही अधीर श्रांत!
54/ कामायनी