उधर सोम का पात्र लिये मनु, समय देखकर बोले-
"श्रद्धे ! पी लो इसे बुद्धि के बंधन को जो खोले ।
वही करूँगा जो कहती हो सत्य, अकेला सुख क्या !
यह मनुहार ! रुकेगा प्याला पीने से फिर मुख क्या ?"
आँखे प्रिय आँखों में, डूबे अरुण अधर थे रस में
हृदय काल्पनिक-विजय में सुखी चेतनता नस-नस में ।
छल-वाणी की वह प्रवंचना हृदयों की शिशुता को,
खेल खिलाती, भुलवाती जो उस निर्मल विभुता को,
जीवन का उद्देश्य, लक्ष्य की प्रगति दिशा को पल में
अपने एक मधुर इंगित से बदल सके जो छल में--
वही शक्ति अवलंब मनोहर निज मनु को थी देती ,
जो अपने अभिनय से मन को सुख में उलझा लेती।
"श्रद्धे, होगी चंद्रशालिनी यह भव-रजनी भीमा ,
तुम बन जाओ इस जीवन के मेरे सुख की सीमा।
लज्जा का आवरण प्राण को ढंक लेता है तम से ,
उसे अकिंचन कर देता है अलगाता 'हम तुम' से
कुचल उठा आनंद,—यही है बाधा, दूर हटाओ,
अपने ही अनुकूल सुखों को मिलने दो मिल जाओ।"
और एक फिर व्याकुल चुंबन रक्त खौलता जिससे ,
शीतल प्राण धधक उठते हैं तृषा-तृप्ति के मिस से ।
दो काठों की संधि बीच उस निभृत गुफा में अपने ,
अग्निशिखा बुझ गई, जागने पर जैसे सुख सपने।
कामायनी /48