किंतु सकल कृतियों की अपनी सीमा हैं हम ही तो ,
पूरी हो कामना हमारी, विफल प्रयास नहीं तो ।"
एक अचेतनता लाती सी सविनय श्रद्धा बोली--
"बचा जान यह भाव सृष्टि ने फिर से आँखें खोली !
भेद-बुद्धि निर्मम ममता की समझ, बची ही होगी ,
प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी लौट गयी ही होंगी।
अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा,
यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।
औरों को हंसते देखो मनु--हंसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ !
रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ यह यज्ञ-पुरुष का जो है,
संसृति-सेवा भाग हमारा उसे विकसने को है !
सुख को सीमित कर अपने में केवल दुःख छोड़ोगे ,
इतर प्राणियों की पीड़ा लख अपना मुंह मोड़ोगे ,
ये मुद्रित कलियाँ दल में सब सौरभ बंदी कर लें ,
सरस न हों मकरंद बिंदु से खुल कर, तो ये मर लें--
सूखे, झड़े और तब कुचले सौरभ को पाओगे,
फिर आमोद कहाँ से मधुमय वसुधा पर लाओगे ।
सुख अपने संतोष के लिए संग्रह-मूल नहीं है ,
उसमें एक प्रदर्शन जिसको देखें अन्य, वही है।
निर्जन में क्या एक अकेले तुम्हें प्रमोद मिलेगा ?
नहीं इसी से अन्य हृदय का कोई सुमन खिलेगा ।
सुख-समीर पाकर, चाहे हो वह एकांत तुम्हारा ,
बढ़ती है सीमा संसृति की बन मानवता-धारा।"
हृदय हो रहा था उत्तेजित बातें कहते-कहते ,
श्रद्धा के थे अधर सूखते मन की ज्वाला सहते।
कामायनी /47