वे मांसल परमाणु किरण से विद्युत थे बिखराते,
अलकों की डोरी में जीवन कण-कण उलझे जाते।
विगत विचारों के श्रम-सीकर बने हुए थे मोती,
मुख मण्डल पर करुण कल्पना उनको रही पिरोती।
छूते थे मनु और कंटकित होती थी वह बेली,
स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी जो अंग-लता थी फैली।
वह पागल सुख इस जगती का आज विराट बना था,
अंधकार-मिश्रित प्रकाश का एक वितान तना था ।
कामायनी जगी थी कुछ-कुछ खोकर सब चेतनता,
मनोभाव आकार स्वयं ही रहा बिगड़ता बनता।
जिसके हृदय सदा समीप है वही दूर जाता है ,
और क्रोध होता उस पर ही जिससे कुछ नाता है।
प्रिय को ठुकरा कर भी मन की माया उलझा लेती,
प्रणय-शिला प्रत्यावर्तन में उसको लौटा देती।
जलदागम-मारुत से कंपित पल्लव सदृश हथेली ,
श्रद्धा की, धीरे से मनु ने अपने कर में ले ली।
अनुनय वाणी में, आंखों में उपालंभ की छाया ,
कहने लगे-"अरे यह कैसी मानवती की माया !
स्वर्ग बनाया है जो मैंने उसे न विफल बनाओ,
अरी अप्सरे ! उस अतीत के नूतन गान सुनाओ ।
इस निर्जन में ज्योत्स्ना-पुलकित विद्युत नभ के नीचे,
केवल हम तुम-और कौन है ? रहो न आँखें मींचे।
आकर्षण से भरा विश्व यह केवल भोग्य हमारा ,
जीवन के दोनों कूलों में बहे वासना धारा ।
श्रम की, इस अभाव की जगती उसकी सब आकुलता ,
जिस क्षण भूल सकें हम अपनी यह भीषण चेतनता।
वही स्वर्ग की बन अनंतता मुसक्याता रहता है ,
दो बूंदो में जीवन का रस लो बरबस बहता है।
कामायनी /45