अचल अनंत नील लहरों पर बैठे आसन मारे ,
देव ! कौन तुम, झरते तन से श्रमकण से ये तारे !
इन चरणों में कर्मकुसुम की अंजलि वे दे सकते ,
चले आ रहे छायापथ में लोक-पथिक जो थकते ,
किन्तु कहाँ वह दुर्लभ उनको स्वीकृति मिली तुम्हारी ?
लौटाये जाते वे असफल जैसे नित्य भिखारी !
प्रखर विनाशशील नर्तन में विपुल विश्व की माया ,
क्षण-क्षण होती प्रकट नवीना बन कर उसकी काया।
सदा पूर्णता पाने को सब भूल किया करते क्या ?
जीवन में यौवन लाने को जी-जी कर मरते क्या ?
यह व्यापार महागतिशाली कहीं नहीं बसता क्या ?
क्षणिक विनाशों में स्थिरमंगल चुपके से हँसता क्या ?
यह विराग संबंध हृदय का कैसी यह मानवता !
प्राणी को प्राणी के प्रति बस बची रही निर्ममता !
जीवन का संतोष अन्य का रोदन बन हंसता क्यों ?
एक-एक विश्राम प्रगति को परिकरसा कसता क्यों ?
दुर्व्यवहार एक का कैसे अन्य भूल जावेगा ,
कौन उपाय ! गरल को कैसे अमृत बना पावेगा !"
जाग उठी थी तरल वासना मिली रही मादकता ,
मनु को कौन वहाँ आने से भला रोक अब सकता !
खुले मसृण भुजमूलों से वह आमंत्रण था मिलता ,
उन्नत वक्षों में आलिंगन सुख लहरोंसा तिरता।
नीचा हो उठता जो धीमे-धीमे निःश्वासों में ,
जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा हिमकर के हासों में ।
जागृत था सौंदर्य यद्यपि वह सोती थी सुकुमारी ,
रूप-चंद्रिका में उज्ज्वल थी आज निशासी नारी।
कामायनी /44