"कितना दुःख जिसे मैं चाहूँ वह कुछ और बना हो ;
मेरा मानस-चित्र खींचना सुन्दरसा सपना हो।
जाग उठी है दारुण-ज्वाला इस अनंत मधुवन में ,
कैसे बुझे कौन कह देगा इस नीरव निर्जन में ?
यह अनंत अवकाश नीड़-सा जिसका व्यथित बसेरा ,
वही वेदना सजग पलक में भर कर अलस सबेरा
काँप रहे हैं चरण पवन के, विस्तृत नीरवता-सी--
घुली जा रही है दिशि-दिशि की नभ में मलिन उदासी ।
अंतरतम की प्यास विकलता से लिपटी बढ़ती है ,
युगयुग की असफलता का अवलंबन ले चढ़ती है ।
विश्व विपुल-आतंक-त्रस्त है अपने ताप विषम-से ,
फैल रही है घनी नीलिमा अंतर्दाह परम-से।
उद्वेलित है उदधि, लहरियाँ लोट रहीं व्याकुल-सी
चक्रवाल की धुंधली रेखा मानो जाती झुलसी।
सघन घूम कुंडल में कैसी नाच रही यह ज्वाला ,
तिमिर फणी पहने है मानो अपने मणि की माला !
जगती-तल का सारा कुंदन यह विषमयी विषमता
चुभने वाला अंतरंग छल अति दारुण निर्ममता।
जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा,
कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आंखों की क्रीड़ा ।
स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं ,
एक बिंदु, जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं।
आह वही अपराध जगत की दुर्बलता की माया ,
धरणी की वर्जित मादकता, संचित तम की छाया।
नील गरल से भरा हुआ यह चंद्र कपाल लिये हो ,
इन्हीं निमीलित ताराओं में कितनी शांति पिये हो।
अखिल विश्व का विष पीते हो सृष्टि जियेगी फिर से ,
कहो अमर शीतलता इतनी आती तुम्हें किधर से?
कामायनी / 43