श्रद्धा रूठ गयी तो फिर क्या उसे मनाना होगा ,
या वह स्वयं मान जायेगी, किस पथ जाना होगा।"
पुरोडाश के साथ सोम का पान लगे मनु करने ,
लगे प्राण के रिक्त अंश को मादकता से भरने।
संध्या की धूसर छाया में शैल शृंंग की रेखा ,
अंकित थी दिगंत अंबर में लिये मलिन शशि-लेखा ।
श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में दुखी लौट कर आयी ,
एक विरक्ति-बोझ सी ढोती मन ही मन बिलखायी।
सूखी काष्ठ संधि में पतली अनल शिखा जलती थी,
उस धुंधले गृह में आभा से, तामस को छलती थी।
किन्तु कभी बुझ जाती पाकर शीत पवन के झोंके ,
कभी उसी से जल उठती तब कौन उसे फिर रोके ?
कामायनी पड़ी थी अपना कोमल चर्म बिछा के ,
श्रम मानो विश्राम कर रहा मृदु आलस को पा के।
धीरे-धीरे जगत चल रहा अपने उस ऋजुपथ में ,
धीरे-धीरे खिलते तारे मृग जुतते विघुरथ में !
अंचल लटकाती निशीथिनी अपना ज्योत्स्ना-शाली
जिसकी छाया में सुख पावे सृष्टि वेदना वाली।
उच्च शैलशिखरों पर हंसती प्रकृति चंचला बाला
धवल हंसी बिखराती अपना फैला मघुर उजाला।
जीवन की उद्दाम लालसा उलझी जिसमें ब्रीड़ा,
एक तीव्र उन्माद और मन मथने वाली पीड़ा।
मधुर विरक्ति भरी आकुलता, घिरती हृदय-गगन में
अंतर्दाह स्नेह का तब भी होता था उस मन में।
वे असहाय नयन थे खुलते—मुंदते भीषणता में ,
आज स्नेह का पात्र खड़ा था स्पष्ट कुटिल कटुता में।
42 / कामायनी