यजन करोगे क्या तुम ? फिर यह किसको खोज रहे हो ?
अरे पुरोहित की आशा में कितने कष्ट सहे हो ।
इस जगती के प्रतिनिधि जिनसे प्रगट निशीथ सबेरा--
'मित्र--वरुण' जिनकी छाया है यह आलोक-अंधेरा ।
वे ही पथ-दर्शक हों सब विधि पूरी होगी मेरी ,
चलो आज फिर से वेदी पर हो ज्वाला की फेरी।"
"परंपरागत कर्मों की वे कितनी सुन्दर लड़ियाँ ,
जीवन-साधन की उलझी हैं जिसमें सुख की घड़ियाँ ,
जिनमें हैं प्रेरणामयी-सी संचित कितनी कृतियाँ
पुलक भरी सुख देने वाली बन कर मादक स्मृतियां।
साधारण से कुछ अतिरंजित गति में मधुर त्वरा-सी
उत्सव-लीला, निर्जनता की जिससे कटे उदासी।
एक विशेष प्रकार कुतूहल होगा श्रद्धा को भी।
प्रसन्नता से नाच उठा मन नूतनता का लोभी।"
यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी धधक रही थी ज्वाला ,
दारुण-दृश्य? रुधिर के छींटे अस्थि खंड की माला।
बेदी की निर्मम प्रसन्नता, पशु की कातर वाणी ,
मिलकर वातावरण बना था कोई कुत्सित प्राणी।
सोमपात्र भी भरा, धरा था । पुरोडाश भी आगे ,
श्रद्धा वहां न थी मनु के तब सुप्त भाव सब जागे ।
“जिसका था उल्लास निरखना वही अलग जा बैठी ,
यह सब क्यों फिर! दृप्त-वासना लगी गरजने ऐंठी।
जिसमें जीवन का संचित सुख सुन्दर मूर्त्त बना है,
हृदय खोलकर कैसे उसको कहूं कि वह अपना है।
वही प्रसन्न नहीं : रहस्य कुछ इसमें सुनिहित होगा,
आज वही पशु मर कर भी क्या सुख में बाधक होगा।
कामायनी / 41