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कर्म

कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोमलता तब मनु को,
चढ़ी शिंजिनी सी, खींचा फिर उसने जीवन-धनु को।
हुए अग्रसर उसी मार्ग में छुटे-तीर-से फिर वे ,
यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे।

भरा कान में कथन काम का मन में नव अभिलाषा ,
लगे सोचने मनु—अतिरंजित उमड़ रही थी आशा।
ललक रही थी ललित लालसा सोमपान की प्यासी,
दिन के उस दीन विभव में जैसे बनी उदासी।
जीवन की अविराम साधना भर उत्साह खड़ी थी ,
ज्यों प्रतिकूल पवन में तरणी गहरे लौट पड़ी थी।
श्रद्धा के उत्साह वचन, फिर काम-प्रेरणा मिल के।
भ्रांत अर्थ बन आगे आये बने ताड़ थे तिल के।
बन जाता सिद्धांत प्रथम-फिर पुष्टि हुआ करती है ,
बुद्धि उसी ऋण को सबसे ले सदा भरा करती है ।
मन जब निश्चित-सा कर लेता कोई मत है अपना ,
बुद्धि दैवबल से प्रमाण का सतत निरखता सपना ।
पवन वही हिलकोर उठाता वही तरलता जल में ।
वही प्रतिध्वनि अंतरतम की छा जाती नभ थल में ।
सदा समर्थन करती उसकी तर्कशास्त्र की पीढ़ी ,
"ठीक यही है सत्य ! यही है उन्नति सुख की सीढ़ी।

कामायनी / 39