लज्जा
"कोमल किसलय के अंचल में नन्हीं कलिका क्यों छिपती-सी,
गोधूली के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती-सी।
मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों-
सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों-
वैसी ही माया में लिपटी अधरों पर उँगली धरे हुए,
माधव के सरस कुतूहल का आँखों में पानी भरे हुए।
नीरव निशीथ में लतिका-सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती ?
कोमल बाहें फैलाये-सी आलिंगन का जादू पढ़ती !
किन इंद्रजाल के फूलों से लेकर सुहागकण रागभरे,
सिर नीचा कर हो गूथ रही माला जिससे मधु धार ढरे ?
पुलकित कदंब की माला-सी पहना देती हो अन्तर में ,
झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में ।
वरदान सदृश हो डाल रही नीली किरनों से बुना हुआ,
यह अंचल कितना हलका-सा कितना सौरभ से सना हुआ।
सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ,
मैं सिमट रही - सी अपने में परिहास-गीत सुन पाती हूँ।
स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भर कर बाँकपना,
प्रत्यक्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना।
मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा,
अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता-सा डोल रहा।
अभिलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के स्वागत को,
जीवन भर के बल-वैभव से सत्कृत करती दुरागत को।
कामायनी / 35