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कुटिल कुंतल से बनाती कालमाया जाल--
नीलिमा से नयन की रचती तमिस्रा साल।
नींद-सी दुर्भेद्य तम की, फेंकती यह दृष्टि ,
स्वप्न-सी है बिखर जाती हँसी की चल-सुष्टि।
हुई केंद्रीभूत-सी है साधना की स्फूर्त्ति ,
दृढ़--सकल सुकुमारता में रम्य नारी-मूर्त्ति।
दिवाकर दिन या परिश्रम का विकल विश्रांत
मैं पुरुष, शिशु-सा भटकता आज तक था भ्रांत ।
चंद्र की विश्राम राका बालिका-सी कांत ,
विजयिनी सी दीखती तुम माधुरी-सी शांत।
पददलित-सी थकी व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत ,
शस्य-श्यामल भूमि में होती समाप्त अशांत ।
आह ! वैसा ही हृदय का बन रहा परिणाम ,
पा रहा हूं आज देकर तुम्हीं से निज काम।
आज ले लो चेतना का यह समर्पण दान ।
विश्व-रानी ! सुंदरी नारी ! जगत की मान !

धूम-लतिका-सी गगन-तरु पर न चढ़ती दीन,
दबी शिशिर-निशीथ में ज्यों ओस-भार नवीन ।
झुक चली सव्रीड़ वह सुकुमारता के भार ,
लद गई पाकर पुरुष का नर्ममय उपचार।
और वह नारीत्व का जो मूल मधु अनुभाव ,
आज जैसे हँस रहा भीतर बढ़ाता चाव ।
मधुर व्रीडा-मिश्र चिंता साथ ले उल्लास ,
हृदय का आनंद-कूजन लगा करने रास ।
गिर रहीं पलकें, झुकी थी नासिका की नोक ,
भ्रूलता थी कान तक चढ़ती रही बेरोक ।
स्पर्श करने लगी लज्जा ललित कर्ण कपोल ;
खिला पुलक कदंब सा था भरा गद्गगद् बोल।

कामायनी / 33