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विजन जगत की तंद्रा में तब चलता था सूना सपना,
ग्रह-पथ के आलोक-वृत्त से काल जाल तनता अपना।
प्रहर, दिवस, रजनी आती थी चल जाती संदेश-विहीन,
एक विरागपूर्ण संस्कृति में ज्यों निष्फल आरंभ नवीन।
धवल,मनोहर चंद्रबिंब से अंकित सुंदर स्वच्छ निशीथ,
जिसमें शीतल पवन गा रहा पुलकित हो पावन उद्गीथ।
नीचे दूर-दूर विस्तृत था उर्मिल सागर व्यथित, अधीर,
अंतरिक्ष में व्यस्त उसी-सा रहा चंद्रिका-निधि गंभीर।

खुलीं उसी रमणीय दृश्य में अलस चेतना की आँखें,
हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक मधु से वे भींगी पाँखें।
व्यक्त नील में चल प्रकाश का कंपन सुख बन बजता था,
एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का मधुर रहस्य उलझता था।
नव हो जगी अनादि वासना मधुर प्राकृतिक भूख-समान,
चिर-परिचित-सा चाह रहा था द्वंद्व सुखद करके अनुमान।
दिवा रात्रि या-मित्र वरुण की बाला का अक्षय शृंगार,
मिलन लगा हंसने जीवन के उर्मिल सागर के उस पार।
तप से संयम का संचित बल, तृषित और व्याकुल था आज-
अट्टहास कर उठा रिक्त का वह अधीर-तम-सूना राज।
धीर-समीर-परस से पुलकित विकल हो चला श्रांत-शरीर,
आशा की उलझी अलकों से उठी लहर मधुगंध अधीर।
मनु का मन था विकल हो उठा संवेदन से खाकर चोट,
संवेदन! जीवन जगती को जो कटुता से देता घोंट।

"आह! कल्पना का सुंदर यह जगत मधुर कितना होता!
सुख-स्वप्नों का दल छाया में पुलकित हो जगता-सोता।
संवेदन का और हृदय का यह संघर्ष न हो सकता,
फिर अभाव असफलताओं की गाथा कौन कहाँ बकता!

कामायनी / 11