जलने लगा निरंतर उनका अग्निहोत्र सागर के तीर,
मनु ने तप में जीवन अपना किया समर्पण हो कर धीर।
सजग हुई फिर से सुर-संस्कृति देव-यजन की वर माया,
उन पर लगी डालने अपनी कर्ममयी शीतल छाया।
उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है क्षितिज बीच अरुणोदय कांत,
लगे देखने लुब्ध नयन से प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत ।
पाकयज्ञ करना निश्चित कर लगे शालियों को चुनने,
उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना लगी धूमपट थी बुनने ।
शुष्क डालियों से वृक्षों की अग्नि-अर्चियाँ हुई समिध्द ,
आहुति के नव धूमगंध से नभ-कानन हो गया समृद्ध।
और सोचकर अपने मन में "जैसे हम हैं बचे हुए--
क्या आश्चर्य और कोई हो जीवन-लीला रचे हुए ,"
अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ कहीं दूर रख आते थे,
होगा इससे तृप्त अपरिचित समझ सहज सुख पाते थे।
दुःख का गहन पाठ पढ़कर अब सहानुभूति समझते थे ,
नीरवता की गहराई में मग्न अकेले रहते थे ।
मनन किया करते वे बैठे ज्वलित अग्नि के पास वहाँ,
एक सजीव, तपस्या जैसे पतझड़ में कर वास रहा ।
फिर भी धड़कन कभी हृदय में होती चिंता कभी नवीन,
यों ही लगा बीतने उनका जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन ।
प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे अंधकार की माया में ,
रंग बदलते जो पल-पल में उस विराट् की छाया में ।
अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते प्रकृति सकर्मक रही समस्त ,
निज अस्तित्व बना रखने में जीवन आज हुआ था व्यस्त ।
तप में निरत हुए मनु, नियमित--कर्म लगे अपना करने,
विश्वरंग में कर्मजाल के सूत्र लगे घन हो घिरने ।
उस एकांत नियति-शासन में चले विवश धीरे-धीरे,
एक शांत स्पंदन लहरों का होता ज्यों सागर-तीरे ।
10 / कामायनी