आशा
उषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई,
उधर पराजित कालरात्रि भी जल में अंतर्निहित हुई ।
वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का आज लगा हँसने फिर से ,
वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में शरद-विकास नये सिर से।
नव कोमल आलोक बिखरता हिम-संसृति पर भर अनुराग ,
सित सरोज पर क्रीड़ा करता जैसे मधुमय पिंग पराग।
धीरे धीरे हिम-आच्छादन हटने लगा धरातल से,
जगीं वनस्पतियाँ अलसाई मुख धोती शीतल जल से ।
नेत्र निमीलन करती मानो प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने ,
जलधि लहरियों की अंगड़ाई बार-बार जाती सोने ।
सिंधुसेज पर धरावधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी,
प्रलय निशा की हलचल स्मृति में मान किये सी ऐंठी-सी।
देखा मनु ने वह अतिरंजित विजन विश्व का नव कांत ,
जैसे कोलाहल सोया हो हिम-शीतल-जड़ता-सा श्रांत।
इंद्रनीलमणि महा चषक था सोम-रहित उलटा लटका ,
आज पवन मृदु साँस ले रहा जैसे बीत गया खटका।
वह विराट् था हेम घोलता नया रंग भरने को आज ;
'कौन ?' हुआ यह प्रश्न अचानक और कुतूहल का था राज !
विश्वदेव, सविता या पूषा, सोम, मरुत, चंचल पवमान,
वरुण आदि सब घूम रहे हैं किसके शासन में अम्लान ?
किसका था भ्रू-भंग प्रलय-सा जिसमें ये सब विकल रहे,
अरे ! प्रकृति के शक्ति-चिह्न ये फिर भी कितने निबल रहे ।
कामायनी/7