"तो यह पृष क्यों तू यों ही वैसे ही चला रही है,
क्यों बैठे न जाती इस पर अपने को थका रही है ?"
"सारस्वत-नगर-निवासी हम आये यात्रा करने
यह व्यर्थ, रिक्त-जीवनघट पीयूष-सलिल से भरने ।
इस वृषभ धर्मप्रतिनिधि को उत्सर्ग करेंगे जाकर ,
चिर-मुक्त रहे यह निर्भय स्वच्छंद सदा सुख पाकर ।"
सब सम्हल गये थे आगे थी कुछ नीची उतराई ,
जिस समतल घाटी में, वह थी हरियाली से छाई ।
श्रम, ताप और पथ-पीड़ा क्षण भर में ये अंतर्हित ,
सामने विराट धवल-नग अपनी महिमा से विलसित ।
उसकी तलहटी मनोहर श्यामल तृण-वीरुष वाली ,
नव-कुंज, गुहा-गृह सुंदर हृद से भर रही निराली ।
वह मंजरियों का कानन कुछ अरुण पीत हरियाली ,
प्रति-पर्व सुमन-संकुल थे छिप गयी उन्हीं में डाली ।
यात्री दल ने रुक देखा मानस का दृश्य निराला ,
खग-मृग को अति सुखदायक छोटा-सा जगत उजाला ।
मरकत की वेदी पर ज्यों रक्खा हीरे का पानी ,
छोटा-सा मुकुर प्रकृति या सोयी राका रानी ।
दिनकर गिरि के पीछे अब हिमकर था चढ़ा गगन में ,
कैलास प्रदोष-प्रभा में स्थिर बैठा किसी लगन में ।
संध्या समीप आयी थी उस सर के, वल्कल-वसना ,
तारों से अलक गूँथी थी पहने कदंब की रसना ।
खग कुल किलकार रहे थे, कलहंस कर रहे कलरव ,
किन्नरियाँ बनीं प्रतिध्वनि लेती थीं ताने अभिनव ।
मनु बैठे ध्यान-निरत थे उस निर्मल मानस-तट में
सुमनों की अंजलि भर कर श्रद्धा थी बड़ी निकट में।
120 / कामायनी