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"कहाँ ले चली हो अब मुझको श्रद्घे ! मैं थक चला अघिक हूँ ,
साहस छूट गया है मेरा निस्संबल भग्नाश पथिक हूँ ,

लौट चलो, इस वात-चक्र से मैं दुर्बल अब लड़ न सकूँगा ,
श्वास रुद्ध करने वाले इस शीत पवन से अड़ न सकेगा।
मेरे, हाँ वे सब मेरे थे जिन से रूठ चला आया हूँ ,
वे नीचे छूटे सुदूर, पर भूल नहीं उनको पाया हूँ ।"

वह विश्वास भरी स्मिति निश्छल श्रद्वा-मुख पर झलक उठी थी ,
सेवा कर-पल्लव में उसके कुछ करने की ललक उठी थी।
दे अवलंब, विकल साथी को कामायनी मधुर स्वर बोली--
"हम बढ़ कर दूर निकल आये अब करने का अवसर न ठिठोली ।

दिशा-विकंपित, पल असीम है यह अनंत-सा कुछ ऊपर है ,
अनुभव करते हो, बोलो क्या पदतल में, सचमुच भूधर है ?
निराधार है किंतु ठहरना हम दोनों को आज यहीं है ;
नियति खेल देखूँ न, सुनो अब इसका अन्य उपाय नहीं है ।

झाँई लगती जो, वइ तुमको ऊपर उठने को है कहती ,
इस प्रतिकूल पवन धक्के को झोंक दूसरी ही आ सहती ।
श्रांत पक्ष, कर नेत्र बन्द बस विहग-युगल से आज हम रहें ,
शून्य पवन बन पंख हमारे हमको दें आधार, जम रहें ।

घबराओ मत ! यह समतल है देखो तो, हम कहाँ आ गये !"
मनु ने देखा आँख खोल कर जैसे कुछ-कुछ त्राण पा गये ।
ऊष्मा का अभिनव अनुभव था ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थे ,
दिवा-रात्रि के संधि-काल में ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।

कामायनी/ 112