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रहस्य

ऊर्ध्व देश उस नील तमस में स्तब्ध हो रही अचल हिमानी ,
पथ थक कर हैं लीन, चतुर्दिक देख रहा वह गिरि अभिमानी।
दोनों पथिक चले हैं कब से ऊँचे-ऊँचे चढ़ते-चढ़ते ,
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से बढ़ते ।

पवन वेग प्रतिकूल उधर था कहता, 'फिर जा अरे बटोही !’
किधर चला तू मुझे भेद कर ! प्राणों के प्रति क्यों निर्मोही ?
छूने को अंबर मचली-सी बढ़ी जा रही सतत ऊँचाई !
विक्षत उसके अंग, प्रकट थे भीषण खड्ड भयकरी खांई ।

रविकर हिम खंडों पर पड़ कर हिमकर कितने नये बनाता ,
द्रुततर चक्कर काट पवन भी फिर से वहीं लौट आ जाता ।
नीचे जलधर दौड़ रहे थे सुन्दर सुर-धनु माला पहने ,
कुंजर-कलभ सदृश इठलाते चमकाते चपला के गहने ।

प्रवहमान थे निम्न देश में शीतल शत-शत निर्भर ऐसे ,
महाश्वेत गजराज गंड से बिखरी मधु धाराएँ जैसे ।
हरियाली जिनकी उभरी, वे समतल चित्रपटी से लगते ,
प्रतिकृतियों के बाह्य रेख-से स्थिर, नद जो प्रति पल थे भगते ।

लघुतम वे सब जो वसुधा पर ऊपर महाशून्य का घेरा ,
ऊँचे चढ़ने की रजनी का यहाँ हुआ जा रहा सबेरा।

कामायनी / 111