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दर्शन

वह चंद्रहीन थी एक रात ,
जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात ,
उजले - उजले तारक झलमल
प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल ;
धारा बह जाती बिंब अटल ;
खुलता था धीरे पवन-पटल ,
चुपचाप खड़ी थी वृक्ष पाँत ,
सुनती जैसे कुछ निजी बात ।

धूमिल छायाएँ रहीं घूम ,
लहरी पैरों को रही चूम।

"माँ ! तू चल आयी दूर इधर ,
संध्या कब की चल गयी उधर ।
इस निर्जन में अब क्या सुंदर--
तू देख रही, हाँ बस चल घर
उसमें से उठता गंध-धूम"
श्रद्धा ने वह मुख लिया चूम।

"माँ ! क्यों तू है इतनी उदास ,
क्या मैं हूँ तेरे नहीं पास ,
तु कई दिनों से यों चुप रह ;
क्या सोच रही है ? कुछ तो कह ;

कामायनी / 97