विश्व, कि जिसमें दु ख की आँघी पीड़ा की लहर उठती,
जिसमें जीवन-मरण बना था बुदबुद की माया नचती।
वही शांत उज्ज्वल मंगल सा दिखता था विश्वास भरा,
वर्षा के कंदब कानन-सा सृष्टि-विभव हो उठा हरा।
भगवति ! वह पावन मधु-धारा ! देख अमृत भी ललचाये ,
वही, रम्य सौंदर्य्य-शैल से जिसमें जीवन घुल जाये।
संध्या अब ले जाती मुझसे ताराओं की अकथ कथा,
नींद सहज ही ले लेती थी सारे श्रम की विकल व्यथा।
सकल कुतूहल और कल्पना उन चरणों से उलझ पड़ी,
कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से जीवन की वह धन्य घड़ी।
स्मिति मघुराका थी, श्वासों से पारिजात कानन खिलता,
गति मरंद-मंथर मलयज-सी स्वर में वेणु कहाँ मिलता!
श्वास-पवन पर चढ़ कर मेरे दरागतशी वंशी-रव-सी, गूँज उठीं तुम, विश्व-कुहर में दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी!
जीवन-जलनिधि के तल से जो मुक्ता थे वे निकल पड़े,
जग-मंगल-संगीत तुम्हारा गाते मेरे रोम खड़े।
आशा की आलोक-किरन से कुछ मानस से ले मेरे,
लघु जलधर का सृजन हुआ था जिसको शशिलेखा घेरे--
उस पर बिजली की माला-सी झूम पड़ी तुम प्रभा भरी,
और जलद वह रिमझिम बरसा मन-वनस्थली हुई हरी !
तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया विश्व खेल है खेल चलो ,
तुमने मिलकर मुझे बताया सबसे करते मेल चलो।
यह भी अपनी बिजली के से विभ्रम से संकेत किया ,
अपना मन है, जिसको चाहा तब इसको दे दान दिया।
94 / कामायनी