"किन्तु वही मेरा अपराधी जिसका वह उपकारी था,
प्रकट उसी से दोष हुआ है जो सबको गुणकारी था।
अरे सर्ग-अंकुर के दोनों पल्लव हैं ये भले-बुरे,
एक दूसरे की सीमा हैं क्यों न युगल को प्यार करें ?
"अपना हो या औरों का सुख बढ़ा कि बस दुःख बना वहीं,
कौन बिंदु है रुक जाने का यह जैसे कुछ ज्ञात नहीं।
प्राणी निज-भविष्य चिंता में वर्तमान का सुख छोड़े,
दौड़ चला है बिखराता-सा अपने ही पथ में रोड़े।
इसे दंड देने में बैठी या करती रखवाली मैं,
यह कैसी है विकट पहेली कितनी उलझन वाली मैं ?
एक कल्पना है मीठी यह इससे कुछ सुंदर होगा,
हाँ कि, वास्तविकता से अच्छी सत्य इसी को वर देगा ।"
चौंक उठी अपने विचार से कुछ दूरागत-ध्वनि सुनती ,
इस निस्तब्ध-निशा में कोई चली आ रही है कहती-
"अरे बता दो मुझे दया कर कहाँ प्रवासी है मेरा ?
उसी बावले से मिलने को डाल रही हूँ मैं फेरा।
रूठ गया था अपनेपन से अपना सकी न उसको मैं ,
वह तो मेरा अपना ही था भला मनाती किसको मैं !
यही भूल अब शूल-सदृश हो साल रही उर में मेरे ,
कैसे पाऊँगी उसको मैं कोई आकर कह दे रे !"
इड़ा उठी, दिख पड़ा राजपथ धुँधली सी छाया चलती ,
वाणी में थी करुण - वेदना वह पुकार जैसे जलती ।
शिथिल शरीर, वसन विशृंखल कबाड़ी-अधिक अधीर खुली।
छिन्नपत्र मकरद लुटी सी ज्यों मुरझायी हुई कली।
कामायनी / 89