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अंक ३, दृश्य १
 


बनाकर धोके की टट्टियो और नालो का भी प्रस्तार किया है। तुम्हीं मुँह के बल गिरोगे। सम्हलो। लौट चलो उस नैसर्गिक जीवन की ओर, क्यो कृत्रिमता के पीछे दौड़ लगा रहे हो।

प्रमदा-जा बूढे, जा, कही से एक पात्र मदिरा माँगकर पी ले, और उस आनन्द मे किसी जगह पड़ रह। क्यों अपना सिर खपाता है।

विवेक-ओह। शान्ति और सेवा की मूर्ति, स्त्री के मुख से यह क्या सुन रहा हूँ-फूलो के मुँह से वीभत्सता की ज्वाला निकलने लगी है। शिशिर-प्रभात के हिम-कण चिनगारियाँ बरसाने लगे है। पिता! इन्हे अपनी गोद मे ले लो।

दम्भ-चुप बूढ़े! धर्म-शिक्षा देने का तुझे अधिकार नहीं-जा, अपने माँद में घुस। अस्पृश्य! नीच!!

विवेक-मै भागूँगा, इस नगर-रूपी अपराधों के घोसले से अवश्य भागूँगा-परन्तु तुम पर दया, आती है।

(जाता है)

दम्भ-गया। सिर दुखने लगा। इस बकवादी को किसी ने रोका भी नहीं!

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