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कामना
 

(तीनों स्त्रियाँ जाती हैं, कामना उठकर टहलती है)

कामना―यह मुरझाये हुए फूल, उँह―कलियाँ चुनो, उन्हे गूंधो और सजाओ, तब कही पहनो । लो, इन्हे रूठने मे भी देर नहीं लगती। जब देखो, सिर झुका लेते हैं; सुगंध और रुचि के बदले इनमे एक दबी हुई गर्म सॉस निकलने लगती है । ( हार तोड़कर फेकती हुई और कुछ कहा चाहती है। दो मनुष्यों को आते देख चुप हो जाती है। वृक्ष की ओट में चली जाती है । एक हल और दूसरा फावड़ा लिये आता है)

सन्तोष―भाई, आज धूप मालूम भी नहीं हुई।

विनोद―हमे तो प्यास लग रही है। अभी तो दिन भी नहीं चढ़ा।

सन्तोष―थोड़ी देर छाँह में बैठ जायँ―बातें करें।

विनोद―काम तो हम लोगों का हो चुका, अब करना ही क्या है।

सन्तोष-अभी देव-परिवार के लिए जो नई भूमि तोड़ी जा रही है, उसमे सहायता के लिए चलना होगा।

विनोद―खेतो मे बहुत अच्छी उन्नति है। अपने

से बहुत बच रहेगा। आवश्यकता होगी, तो दूंगा।