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अंक २, दृश्य ४
 


उसकी तीक्ष्ण आँखो मे कौशल की लहर उठती है । मुसकिराहट में शीतल ज्वाला और बातो मे भ्रम की बहिया है।

संतोष—परंतु हम सब जानते हुए भी अंजान हो रहे है।

विवेक—कोई उपाय नहीं।(जाता है)

(विलास का प्रवेश)

विलास—(स्वगत) यह बड़ा रमणीय देश है । भोले-भाले प्राणी थे, इनमें जिन भावो का प्रचार हुआ, वह उपयुक्त ही था। परन्तु सब करके क्या किया ? अपने शाप-ग्रस्त और संघर्ष-पूर्ण देश की अत्याचार-ज्वाला से दग्ध होकर निकला। यहाँ शीतल छाया मिली, परंतु मैने किया क्या ?

संतोष—वही ज्वाला यहाँ भी फैला दी, यहाँ भी नवीन पापो की सृष्टि हुई । अब सब द्वीपवासी और उनके साथ तुम भी उसी मानसिक नीचता, पराधीनता, दासता, द्वंद्व और दुःखो के अलात-चक्र में दग्ध हो रहे हो । आनंद के लिए सब किया; पर वह कहाँ । जब मन मे आनंद नही, तब कही नहीं।

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