होकर दासता का बोझ वहन करते हैं। हृदय में व्याकुलता, मस्तिष्क में पाप-कल्पना भरी है ।
विवेक—सोने का ढेर छल और प्रवंचना से एकत्रित करके थोड़े-से ऐश्वर्यशाली मनुष्य द्वीप-भर को दास बनाये हुए है। और, आशा में, कल स्वयं भी ऐश्वर्यवान होने की अभिलाषा मे बचे हुए सीधे सरल व्यक्ति भी पतित होते जा रहे हैं।
संतोष—हत्या और पापों की दौड़ हो रही है, और धर्म की धूम है।
विवेक—चलो भाई, चलें, अब उपासना-गृह मे शासन-सभा होगी। वही उन हत्यारों का विचार भी होनेवाला है । ( देखना हुआ) उधर देखो, रानी उपा- सना-गृह मे जा रही है।
सतोष—भला यह रानी क्या वस्तु है ?
विवेक—मदिरा से ढुलकती हुई, वैभव के बोझ से दबी हुई, महत्त्वाकांक्षा की तृष्णा से प्यासी, अभि- मान की मिट्टी की मूर्ति । परंतु है प्रभावशालिनी ।
संतोष—भला हम लोग तो यह सब कुछ नहीं जानते थे । यह कहाँ से—
विवेक—वही विदेशी, इंद्रनाली युवक विलास ।
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