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अंक १, दृश्य ४

मिली है, उसी के लिए तुम ईर्षा कर रही हो, वैसी ही तुम भी चाहती हो।

लीला-तो ऐसा चाहना क्या कोई अभिशाप, ईर्षा, या और क्या-क्या तुम कह रही हो, वही है ?

वन-लक्ष्मी-आन तक इस द्वीप के लोग 'यथा- लाभ-संतुष्ट' रहते थे, कोई किसी का मत्सर नहीं करता था । परंतु इस विष का-

लीला -वस करो, मै तुम्हारे अभिशाप, ईर्षा और विष को नहीं समझ सकी। यदि मै किसी अच्छी वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा करूँ, तो उसकी गिनती तुम अपने इन्ही शब्दो मे करोगी, जिन्हे किसी ने सुना नहीं था । अभिशाप, मत्सर, ईर्षा और विष ।

वन-लक्ष्मी-अच्छी वस्तु तो उतनी ही है,जितनी की स्वाभाविक आवश्यकता है। तुम क्यो व्यर्थ अभावो की सृष्टि करके जीवन को जटिल बना रही हो ? जिस प्रकार ज्वालामुखियाँ पृथ्वी के नीचे दबा रक्खी गई है, और शीतल स्रोत पृथ्वी के वक्ष-स्थल पर बहा दिये गये उसी प्रकार ये सब 'तारा की संतानों के कल्याण के लिए गाड़ दिये गये है।यह ज्वाला सोने के रूप में सबके हाथो मे खेलती

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