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कामना
किया है। बिना मेरी आज्ञा लिये यहाँ बैठ गये। क्या यह कोई धर्मशाला है?
सन्तोष-मैं तो प्रत्येक गृहस्थ के घर को धर्मशाला के रूप में देखना चाहता हूँ, क्योंकि इसे पापशाला कहने मे संकोच होता है!
नागरिक-देखो इस दुष्ट को। अपराध भी करता है और गालियाँ भी देता है। उठ जा यहाँ से, नहीं तो धक्के खायगा।
सन्तोष-हे पिता! तुम्हारी संतान इतनी बँट गई है।
नागरिक-क्या हिस्सा भी लेगा? उठ-उठ-चल-
सन्तोष-भाई, मैं बिना किसी के अवलम्ब के चल नहीं सकता। मेरी बहन आती है, मैं चला जाऊँगा।
नागरिक-क्या तेरी बहन!
सन्तोष-हाँ-
नागरिक-(स्वगत)आने दो, देखा जायगा।
(दौड़ती हुई करुणा का प्रवेश, पीछे मद्यप दुर्वृत्त)
दुवृत्त-ठहरो सुन्दरी! मुझे विश्वास है कि
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