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अंक ३, दृश्य २
 

२-ब्याह कर लो रानी।

कामना-चुप मूर्ख। मै पवित्र कुमारी हूँ। मैं सोने से लदी हुई परिचारिकाओं से घिरी हुई अपने अभिमान-साधना की कठिन तपस्या करूँगी। अपने हाथों से जो विडम्बना मोल ली है, उसका प्रतिफल कौन भोगेगा? उसका आनंद, उसका ऐश्वर्य और उसकी प्रशंसा, क्या इतना जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है?

१-परंतु-

२-जीवन का सुख, स्त्री होने का उच्चतम अधिकार कहाँ मिला? रानी, तुम किसी पुरुष को अपना नहीं बना सकी।

कामना-देखती हूँ; तू बहुत बढ़ी चली ना रही है। क्या तुझे-

१-क्षमा हो, अपराध क्षमा हो।

२-रानी, मुझे चाहे तीरो से छिदवा दो, परंतु मैं एक बात बिना कहे न मानूँगी। जब इस विदेशी विलास को तुम्हारे साथ देखती हूँ, तब मैं क्रोध से काँप उठती हूँ। कुछ वश नहीं चलता, इससे रोने लगती हूँ। बस, और क्या कहूँ।

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