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अंक ३, दृश्य २
कामना-बहुत दिनो पर दिखाई पड़े।
सन्तोष-हाँ रानी।
कामना-किधर भूल पड़े? अब क्या डर नहीं लगता?
सन्तोष-लगता है रानी।
कामना-(कुछ संकोच से) फिर भी किस साहस से यहाँ आये।
सन्तोष-(मुस्कुराकर) देखने के लिए कि मेरी आवश्यकता अब भी है कि नहीं।
कामना-परिहास न करो सन्तोष।
सन्तोष-परिहास। कभी नहीं। जब हृदय ने पराभव स्वीकार करके विजय-माला तुम्हे पहना दी और तुम्हारे कपोलो पर उत्साह की लहर खेल रही थी, उसी समय तुमने ठोकर लगा कर मेरी सुन्दर कल्पना को स्वप्न कर दिया रमणी का रूप-कल्पना का प्रत्यक्ष–सम्भावना की साकारता और दूसरे अतीन्द्रिय रूप-लोक का आलोक, जिसके सामने मानवीयमहत् अहम्-भाव लोटने लगता है। जिस पिच्छल भूमि पर स्खलन विवेक बनकर खड़ा होता है।
जहाँ प्राण अपनी अतृप्त अभिलाषा का आनन्द-
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