वाजर की कोठरी 77 पारसनाथ को देख कर सब उठ खडे हुए और हरिहरसिंह ने बडी खातिर से पास बैठा कर बातचीत करना शुरू किया। हरिहर० कहो दोस्त, क्या रग-ढग है ? पारस० बहुत अच्छा है। आनद ही आनन्द दिखता है। हमारे मामले का पुराना कोढ भी निकल गया और अब हम लोग हर तरह से बै- फिक्र हो कर अपना काम करने लायक हो गए। हरिहर० (चौंक कर) कहो क्हो, जल्दी कहो क्या हुआ। वह कोढ कौन-सा था और कैसे निकल गया? दूसरा हा यार, सुनाओ तो सही, यह तो तुम बडीखुशखबरी लाय' पारस० बेशक खुशखबरी की बात है, बल्कि यों कहना चाहिए कि हम लोगों के लिए इससे बढ कर खुशखबरी हो ही नहीं सकती। हरिहर० भला कुछ कहो भी कि यो हो जी ललचाया करोगे। पारस० सच यो है कि दम लगा लेंगे तभी कुछ कहेगे । दूसरा (तैयार चिलम पारसनाथ की तरफ बढा कर) लीजिए दम भी तैयार है, मलते-मलते मोम कर डाला है। पारस० (दम लगा कर) हम लोगो को अपने कम्बख्त चचा लालसिह का वडा ही डर लगा हुआ था। यह सोचत थे कि कही ऐसा न हो कि कम्बख्त दूसरा ही वसीयतनामा लिस पर हमारी सब मेहनत की मिट्टी कर दे, ऐसी हालत मे सरला की शादी दूसरे के साथ हो जाने पर भी इच्छानु- मार लाभ न होता और इसी सपब से हम लोग उसे मार डालने का विचार भी कर रहे थे। तीसरा हा हा, तो क्या हुआ, वह मर गया पारस० मरा तो नही पर मरे के बराबर हो गया। हरिहर० सो कैसे ? तुमने तो कहा था कि वह कही चला गया। पारस० हा ठीक है, ऐसा ही हुआ था, मगर माज उसके हाथ की लिखी हुई एक चिट्ठी मुझे मिली जिसे एक आदमी लेवर मेरे पास वाया ? हरिहर० उसमे क्या लिखा था? पारस० (जैव स चिट्ठी निकाल कर और हरिहरसिंह को दिखाकर)
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