पृष्ठ:कांग्रेस-चरितावली.djvu/९९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दिनशा एल जी याचा। ८३ 1 • बड़े प्रोहदे पर विराजमान होते । परन्तु यह कुछ न हो कर प्रय भाप घ्यापारी हैं। तीभी आपको जो बचपन में उत्तन शिक्षा मिली थी उसका परिणाम स्वदेश पाल्याण की इच्छा में कमी नहीं हुई। यह गुण ज्यों का त्यों भाप में प्रम तया फ़ायम है। यदि आप व्यापार न करते और उच्च शिक्षा प्राप्त करके सरकारी नौकरी स्वीकार कर लेते तो कदाचित् देश सेवा की इच्छा इतनी बलवती न होती जितनी कि प्रय है । गित मनुष्य के हृदय में स्वदेश अथवा स्वजाति हित का अंकुर ' होता है वह कभी न कभी जहर पैदा हो कर अच्छे अच्छे फल लाता है। जिस मनुष्य में जो गुण है उसका उपपोग कभी न कभी जरूर होता है। अतएव यहां पर इतना कहना जरूरी है कि सरकारी नौकरी + स्वीकार करने से स्वदेश हित साधन की सामर्थ आपमें बहुत ही कम - हो जाती । धन के लालच में मनुष्य अंधा हो जाता है। काम, क्रोध, • लोभ, और मोह ये ही चार अनर्थ की जड़ हैं। लोभ के मोह में पड़ कर - मनुष्य क्या नहीं कर सकता। इसी कारण इंग्लैंड, अमेरिका इत्यादि देशों में अपने विचारों की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए, ज्यादातर लोग व्यापार अथवा कारीगरी के बहुत से काम करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं और समय पड़ने पर अपनी स्वतंत्र राय जाहर कर के सर्वसाधा- रण को लाभ पहुंचाते हैं। अन्य देशों की तरह क्या भारत में विद्वान् ' नहीं हैं अथवा भारतवासी किसी प्रकार विद्या घुद्धि और बल में किसी से.कम हैं। परन्तु सच बात तो यह कि विदेशियों में कोई ऐसा विशेष गुण नहीं है जो भारतवासियों में न हो। अगर कमी है तो केवल स्वतंत्रता से रहने की। यहां पर लोग विद्या केवल सरकारी नौकरी के लिए ही पढ़ते हैं। यहां बड़े बड़े विद्वान् भी अपनी नौकरी जाने के भय से सच्ची यात मुंह से नहीं निकालते । वे अपने लोभ के सामने देश हित को कोई पीज़ नहीं समझते । परन्तु बाचा के पिता ने मानों यही सब बातें सोच कर प्रापको व्यापार में लगाया । दिनशा एडलजी वाचा अपने पिता की सहायता से व्यापार करने लगे। परन्तु प्रापणे विचार माधारण व्यापारियों की तरह हाय नका, हाय नुक्मान की ओर नहीं