४ फाभि-पापा स्त्री का था। इस स्त्री के ऊपर एक सरकारी अधिकारी ने झूठी गवाही देने का अपराध लगाया या । धन पास न होने के कारण कोई वकील उसकी शोर से अदालत में नहीं जाता। यह देख कर, उमेश वाघू ने उसकी ओर से नदालत में जा कर, वकालत करना स्वीकार किया। इस स्त्री पर, किसी तरह का अपराध सिद्ध न हो सकने के कारण, सेशन जज ने उसे छोड़ दिया; और साथ ही वायू उमेशचन्द्र के विद्वत्ता को बहुत कुछ तारीफ की। इसी मुकद्दमें से उनका नाम चारों ओर लोगों में प्रसिद्ध हो गया और उनको लाख, सवा लाख रुपया सालाना की आमदनी होने लगी। कलकत्ते में बुडरफ़ आदि अच्छे २ अंगरेज़ बेरिस्टर थे उनसे भी अधिक लोग इनका आदर और सन्मान करने लगे। फौजदारी की अपेक्षा दीवानी के काम में इनकी अधिक तारीफ हुई । सन् १८८३ में बाबू सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के ऊपर जो मुफ़द्दमा चला था उसमें, और सन् १८८७ में स्टेट्समैन और फ्रेंड श्राफ इण्डिया पत्र के प्रसिद्ध लेखक मिस्टर रावर्ट माईट के ऊपर जो इज्जत हतक की नालिश हुई थी उसमें, उमेश बाबू ने बड़ी योग्यता से काम किया। इन दोनों मुकद्दमों से इनका नाम और भी ज्यादा प्रसिद्ध हुआ । इनके कानून के ज्ञान और वाक्पटुता की सब लोगों ने खूयही तारीफ़ को । सब से अधिक प्रशंसा योग्य बात यह हुई कि, उमेश वायू ने इन दोनों मुकद्दमों में सर्च का एक पैसा भी न लिया, सब काम योंही मुफ्त में कर दिया । सन् १८८१ से १८८८ तक करीय ६-७ वर्ष तक इन्हों ने सरकारी स्टैंडिंग कोंसल में काम किया। यह स्टैंडिङ्ग कौंसिल भारत सरकार को कानून के विषय में सलाह देती है । जब कानून बनाये जाते हैं तब वह नये और पुराने फ़ानून की विवेचना करती और सरकार को उनके बुरे भले की राय देती है। इस कौंसिल में उमेश वायू के नियत होने से यह यात भी सिद्ध हो गई फि, सरकार उनकी कदर करती है और उनसे सप्ताह लेना आवश्यक समझती है ।
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