बाबू मानन्द मोहन घोस। १२७ सन् १८९८ में, जय कांग्रेस की बैठक मदरास में हुई थी, उस समय लोगों ने भापको कांग्रेस का सभापति चुना। अपने जातियाधनों द्वारा प्राप्त मान को आपने सहर्ष स्वीकार किया और मदरास नाकर सभापति के प्रासन को ग्रहणा किया। जितनी ही आपको देश की राजनैतिक दशा सुधारने की चिन्ता थी उतनी ही घिन्ता भापको देश की समाजिक और धार्मिक दशा सुधारने की थी । भाप याल्याम्पस्था से ही प्राह्मधर्म के अनुयायी थे। जिस समय आप कलकत्ते में पढ़ने गए पे उस समय स्वर्गीय याय केशवचन्द्र सेन ब्राह्मधर्म का उपदेश लोगों को देते थे। उन्हीं का उपदेश सुनकर आपने ब्राह्मधर्म ग्रहणा किया था। उस समय से मरने के समय तक आप यरायर ब्राह्मधर्म पर दृढ़ बने रहे। और अपनी शक्तिननुसार ब्रह्म समाज की सेवा करते रहे । प्राप रात दिन सदा देश फरयाणा की चिन्ता में ही मग्न रहते थे। अन्त में यही चिन्ता प्रापको शीघ्र ही चिता पर लेगई । रुग्नावस्था में · भी. श्राप सदा देश हित कार्य में लगे रहते थे। इसी कारण आपकी बीमारी दिनों दिन बढ़ती गई । डाकृर और आप के भास्मीय स्वजन, आपको ऐसी दशा में काम करने से मना फरते थे परन्तु श्राप ने कभी किसी की बात की ओर ध्यान नहीं दिया। सदैव अपने व्रत में व्रती बने रहे। विगत साल जब लार्ड कर्जन ने बंग-भंग कर डाला और स्वदेशी आन्दोलन का भारम्भ हुमा उस समय प्रापं बीमार थे । चारपाई से उठ नहीं सकते थे । परन्तु ऐसी दशा में भी उस विराट सभा में, जो १६ अक्तूबर को घंग-भंग के स्मर- खार्थ कलकत्ते में, बड़े जोश के साथ हुई थी आप गाड़ी में दो प्राद- मियों के सहारे से बैठ कर पधारे थे। और वहां पर जो भाप की वक्तृता पढ़ी गई थी वह यहीअपूर्व यो । उस से आप के चित्त की गम्भीरता और मन की तेजस्विता प्रगट होती है। सन् १९०५ में, जय कांग्रेस की बैठक बनारस में हुई थी और गोखले महोदय सभापति हुए थे तब एक खुला हुमा छपा पत्र मि. गोखले के नाम भाया था। उस पत्र के नीचे . लिखा था "कांग्रेस का .
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