प्रस्तावना
सं सार में चित्र और चरित्र ये ही दो ऐसे अद्भुत पदार्थ हैं कि जिनके कारण संसार का नास्तित्व है।तत्ववेत्ता लोग इम संसार को माया और जीव से मिल कर बना हुप्रा यतलाते हैं। वे लोग माया और जीव की परिभाषा नाना प्रकार से वर्णन करते हैं। परन्तु हमारी ममझ में, माया और जीव का अर्थ, चित्र और चरित्र इन दोनों में पूरे तीर से घट सकता है। क्योंकि संसार में कोई ऐसी जगह खाली नहीं जहां माया और.जीव का संचार न हो। इसी प्रकार संसार में जितने पदार्थ हैं वे सय चित्र और चरित्र से खाली नहीं हैं। वित्र और चरित्र ये दोनों पराक्रम का फल हैं। किसी विलक्षण गुण के योग के बिना चित्र अथवा चरित्र की उत्पत्ति नहीं होती। इसकी उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है कि पहले चरित्र फिर चित्र। क्योंकि संसार में इसी प्रकार का रूप इस का दिखाई पड़ता है । सच्चरित्र होने से ही चित्र की चाहना होती है। संसार में बिना उत्तम चरित हुए चित्र नष्ट हो जाता है। मनुष्य अथवा देवताओं के जो आप चित्र देखते हैं उन सध का क्रम इसी प्रकार का है। चित्र मनुष्य के हाथ की प्रकृति है और धरित्र मन को । चित्र मूर्ति पूजा है और चरित मानस पूजा । चित्र सगुण भक्ति का साधन और चरित्र निर्गुण भक्ति का साधन है। यदि संसार से चित्र नष्ट हो जाय तो चरित्र का कहीं पता न चले । और चरित्र के बिना चित्र की उत्पत्ति ही नहीं । संसार में यह कैसा विलक्षण व्यापार है । इसी लिए यह कहना पड़ता है कि संसार में चरित्र प्रधान और चित्र गोण है। पाश्चात्य लोगों की कृपा से आज कल एक नई विद्या का प्रादुर्भाव हुआ है। उसके द्वारा यह सिद्ध किया जाता है कि मनुष्य के अन्तःकरण के गुण और उसके शरीरावयव, इन दोनों में परस्पर बहुत कुछ सम्बन्ध है । अतएव चरित्र के ऊपर मे चित्र की कल्पना की जा सकती और उसका कुछ न कुछ प्रतिबिम्ब।