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भाई की विदाई
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ताने एक डाकू खड़ा था। डाक घर में से माल ला-लाकर गट्ठर बांध-बांधकर प्रांगन में ढेर कर रहे थे। सब काम चुपचाप हो रहा था। बीच-बीच में बाहर के प्रहरियों की सांकेतिक सीटी, नायक की अस्फुट आज्ञा और सांप की भांति लहराती उज्ज्वल सर्चलाइट की रोशनी-बस इसीका अस्तित्व था। रात खूब अंधेरी थी।

घर के एक कोने से किसी बालिका के चीत्कार की ध्वनि आई और बन्द हो गई। नायक ने सांकेतिक भाषा में पूछा-क्या है?

और उसे कुछ भी उत्तर न मिला। वह एकदम आंगन में कूद पड़ा। गृहपति से पूछा-यह चिल्लाया कौन?

गृहिणी ने मर्माहत भाषा में कहा-मेरी लड़की, वह अपने कमरे में छिपी थी। तुम लोगों के डर से हमने उसे छिपा दिया था। कोई पापी उसे सता रहा है। हाय, तुम्हें भगवान का भी भय नहीं?--गृहिणी ने हृदय विदीर्ण करनेवाली हाय की।

नायक बिजली की भांति लपककर वहां पहुंचा। देखा एक किशोरी बालिका धरती पर बदहवास पड़ी है। उसके मुंह में कपड़ा ठुसा है और वस्त्र अस्त-व्यस्त हो रहे हैं। एक डाकू उसके साथ पाशविक कर्म किया चाहता है। बालिका इस अवस्था में भी छटपटा रही है।

डाकू के सावधान होने से प्रथम ही नायक की गोली ने उसकी खोपड़ी को चकनाचूर कर दिया और वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने बालिका के मुंह से वस्त्र खोला और सहारा देकर खड़ा किया। गोली चलने और एक आदमी की खोपड़ी चूर-चूर होने तथा अपने ऊपर भयानक आक्रमण होने से बालिका विमूढ़ हो रही थी। वह थर-थर कांप रही थी और उसकी दृष्टि ज़मीन पर झुकी थी। वह रो भी न सकती थी।

नायक ने धीरे से घुटने के बल बैठकर करुण-कोमल स्वर में कहा-बहिन, इस पतित-पापी को क्षमा कर दो, यह दुष्ट अब तो पूरा दण्ड पा चुका।

बालिका ने साहस करके नायक की ओर देखा, वह कुछ देर स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखती रही। अभी भी नायक के हाथ में पिस्तौल थी। नायक घुटने के बल सिर झुकाए खड़ा 'बहिन क्षमा, बहिन क्षमा!' शब्द बार-बार कह रहा था। बालिका साहसपूर्ण नायक के पास आई और उसका नकाब पकड़कर खींच लिया। तप्त अंगार के समान नायक का मुख, नाममात्र की रेखा के समान