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भाई की विदाई
 

डाकू मानो जादू के ज़ोर से सफलतापूर्वक डाके मार ले जाते थे। मानो उन्होंने सरकार के अमन-अमान को चुनौती दे रखी थी।

सर्दी के दिन थे--और बारिश हो चुकी थी। अभी भी आकाश पर बदली थी। ठण्डी हवा तीर की भांति चल रही थी। दारोगाजी अंगीठी सामने रखे हुए कुर्सियों पर पैर फैलाए सटक मुंह में दाबे फकाफक धुआं फेंक रहे थे । एक आदमी धीरे से आकर सामने खड़ा हो गया । यह दुबला-पतला पीले रंग का आदमी था। इसकी प्रांखें गढ़े में घुसी थीं। बदन पर साधारण धोती और कुरता था। सिर पर एक मैली पाग थी। उसे देखते ही हेड मुंशी ने अपने रजिस्टर से नज़र उठाकर देखा और कहा-अरे तुम हो, लाला, आज इधर कैसे भूल पड़े ?

वह व्यक्ति हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाकर बोला-दीवानजी, मेरी शामत आई दीखती है। मेरी इज़्ज़त बचाइए ; मैं किसी भांति बाहर नहीं।

'कुछ बोलोगे भी या गिड़गिड़ाए जाओगे? कुछ मालूम भी तो हो! आखिर मामला क्या है ?'

'यह देखिए सरकार' उसने एक पुर्जा धीरे से मुंशीजी के सामने बढ़ा दिया। पुर्जा देखते ही मुंशीजी उछल पड़े ; उन्होंने थानेदार साहब की ओर देखकर कहा--देखिए हुजूर, यह मामला टेढ़ा मालूम होता है । रिवोल्यूशनरी पार्टी का पुर्जा है, लाला से पांच हजार रुपये तलब किए हैं।

दारोगा साहब ऐसे चमके मानो बिजली घूम गई हो। उन्होंने हुक्के की नाल एक ओर सरकाकर पुर्जे के लिए हाथ बढ़ाकर कहा-देखें, देखें!--पुर्जा पाकर वे गौर से पढ़ गए। उन्होंने मूंछों पर ताव दिया, होंठ काटे, फिर धीरे-धीरे कहा-यह काम भी उन्हीं शैतानों का है। जिनकी बाबत खबरदार रहने को साहब ने लिखा है। इसके बाद वे लाला से धड़ाधड़ सवाल करने लगे। दारोगाजी की सरगर्मी देख लालाजी को तसल्ली हुई। उन्होंने कहा--हुजूर, मेरे घर में पांच रुपये भी नहीं, पांच हजार कहां से दूंगा। और यह तो धींगा-मुश्ती हुई। सरकार की अमलदारी में ऐसा अंधेर, हुजूर माई-बाप हैं।

दारोगाजी कुर्सी से उठकर टहलने लगे। वे बीच-बीच में जमीन पर पैर पटकते और होंठ काटते जाते थे। कभी-कभी एकाध शब्द उनके मुंह से भी निकल जाता था। अन्त में उन्होंने मुंशी को रिपोर्ट लिखने का हुक्म दिया।फिर लाला से बोले-तो अगर तुम लिखे ठिकाने पर पांच हजार रुपया न पहुंचानोगे तो वे घर में डाका