समान स्वच्छ आंखें मेरे मुख पर डालकर कहा-काश! मैं इसका सहोदर भाई होता! मैं ठठाकर हंस पड़ा। वह मुस्कराकर रह गया। कुछ बातें हुईं। उसी दिन वह मेरा मित्र बन गया।
दिन पर दिन बीतते गए। अछूते प्यार की धाराएं दोनों हृदयों में उमड़कर एक धार हो गईं। सरल, अकपट व्यवहार पर दोनों एक-दूसरे पर मुग्ध होते गए। वह मुझे अपने गांव ले गया। किसी तरह न माना। गांव के एक किनारे स्वच्छ अट्टालिका थी। वह गांव के ज़मींदार का बेटा था, इकलौता बेटा। हृदय और सूरत का एक-सा। उसकी मां ने दो दिन में ही मुझे बेटा कहना शुरू कर दिया। अपने होश के दिनों में मैंने वहां सात दिन माता का स्नेह पाया। फिर चला आया। अब तो बिना उसके मन न लगता था। दोनों के प्राण दोनों में अटक रहे। एक दिन उन्मत्त प्रेम के आवेश में उसने कहा था-किसी अघट घटना से जो हम दोनों में एक स्त्री बन जाए तो मैं तो तुमसे ब्याह ही कर लूं।
नायक से कई बार पूछा-क्यों तुमने मुझे उससे मित्रता करने को कहा था!-वे सदा यही कहते-समय पर जानोगे। गुप्त सभा की भयंकर गंभीरता सब लोग नहीं जान सकते! नायक मूर्तिमान भयंकर गंभीर थे।
उस दिन भोजन के बाद उसका पत्र मिला। वह मेरी पाकेट में अब भी सुरक्षित है। पर किसीको दिखाऊंगा नहीं। उसे देखकर दो सांस सुख से ले लेता हूं, आंसू बहाकर हल्का हो जाता हूं। पुराने रोगी को जैसे कोई दवा खुराक बन जाती है, मेरी वेदना को यह चिट्ठी खुराक बन गई है।
चिट्ठी पढ़ भी न पाया था, नायक ने बुलाया। मैं सामने सरल स्वभाव से खड़ा हो गया। बारहों प्रधान हाज़िर थे। सन्नाटा भीषण सत्य की तस्वीर खींच रहा था। मैं एक ही मिनट में गम्भीर और दृढ़ हो गया। नायक की मर्मभेदिनी दृष्टि मेरे नेत्रों में गड़ गई, जैसे तप्त लोहे के तीर आंख में घुस गए हों। मैं पलक मारना भूल गया, मानो नेत्रों में आग लग गई हो। पांच मिनट बीत गए। नायक ने गंभीर वाणी से कहा-सावधान! क्या तुम तैयार हो?
मैं सचमुच तैयार था। मैं चौंका नहीं। आखिर में उसी सभा का परीक्षार्थी सभ्य था। मैंने नियमानुसार सिर झुका दिया। गीता की रक्तवर्ण रेशमी पोथी धीरे से मेज़ पर रख दी गई। नियमपूर्वक मैंने दोनों हाथों से उठाकर उसे सिर पर