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इतने में एक दिन सुना कि विवाह का दिन निर्धारित हो चुका है और शीघ्र ही तिलक भेजा जानेवाला है । अब तो मेरी बेचैनी और भी बढ़ गई। यहां तक कि चिन्ता के मारे मैंने कई दिन तक भोजन नहीं किया। दिन-रात एक कोठरी में पड़ी-पड़ी रोया करती थी। पिताजी को शायद यह मालूम हो गया था कि मैं इस विवाह से प्रसन्न नहीं हूं। क्योंकि एक दिन उनमें और माताजी में बड़ी देर तक बातें होती रहीं। यहां तक कि अन्त में दोनों में झगड़ा भी हो गया । माता रूठ बैठीं और बार-बार नैहर चली जाने के लिए धमकी देने लगीं । परन्तु फिर सारा झगड़ा तय हो गया और सुनने में आया कि पिता को कोई कठिन रोग हो गया है,इसलिए दवा कराने के लिए कलकत्ता जानेवाले हैं। मुझे विश्वास हो गया कि विवाह कम से कम इस साल के लिए तो टल गया। परन्तु पिताजी के जाने के तीसरे रोज़ ही हमारी सौतेली मां के एक भाई आए और उन्होंने पुरोहितजी के मार्फत तिलक भेजवा दिया। आठ दिन के बाद ही विवाह का दिन निर्धारित हो गया।

मेरी तमाम आशा-भरोसा पर पानी फिर गया । रहस्य कुछ समझ में नहीं आया। पिताजी के हठात् रोगग्रस्त होकर चले जाने पर भी बड़ा आश्चर्य हुआ।मेरे लिए रोने के सिवा और कोई उपाय नहीं रह गया। विवाह की तैयारी खूब जल्दी-जल्दी होने लगी। इधर माताजी मेरे ऊपर सतर्क दृष्टि भी रखने लगीं।कोई मेरे पास नहीं आने पाता था। विवाह की नेवता भी शायद किसी रिश्तेदार को नहीं दिया गया। गांव में प्रचार कर दिया गया कि पिताजी की बीमारी के कारण विवाह में उत्सव आदि नहीं होगा। वर महोदय केवल पुरोहित और नाई के साथ आकर बिना आडम्बर के विवाह करके बहू को ले जाएंगे। ये बातें सुनकर मेरी चिन्ताग्नि और भी धधक उठी। दिन-रात रोते-रोते मेरी आँखें सूज गईं।माताजी ने पिता की बीमारी का जिक्र करके मुझे बहुत समझाया-बुझाया। उनके भाई ने भी मुझे समझाने-बुझाने और वर महोदय के धन-ऐश्वर्य का बखान करने में कोई बात उठा न रखी। परन्तु चिन्ता बढ़ती ही गई। जी में आता था कि आत्महत्या कर लूं। परन्तु माताजी सदैव सतर्क रहती थीं, अन्त में हल्दी-तेल चढ़ने का दिन आया। प्रांगन में मंगल-घट स्थापित हुआ । मैं जबर्दस्ती घसीटकर वहां लाई गई । अन्यान्य कृत्यों के बाद जब नाइन हल्दी-तेल लेकर आगे आई, मैंने उसके हाथ से पात्र लेकर दूर फेंक दिया। माताजी इसपर बहुत नाराज हुई, और बलपूर्वक