मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया।
वह कहने लगी--मैं कौन हूं, किसकी लड़की हूं और कहां की रहनेवाली हूं,यह न बताऊंगी। क्योंकि अपने पूज्य पिता-माता के नाम को कलंकित करना मुझे स्वीकार नहीं है और न उनका नाम-धाम जानने के लिए आपको ही कोई उत्सुकता होनी चाहिए।
मैंने कहा--अच्छी बात है, आप जो कुछ सुनाएंगी, वही काफी होगा। उससे अधिक कुछ जानने की मैं बिलकुल चेष्टा न करूंगा।
वह कहने लगी :
अच्छा तो सुनिए ! मेरे पिता संयुक्त प्रान्त के एक शहर के प्रतिष्ठित हिन्दू थे। मैं और मेरी बड़ी बहिन के सिवा उनके और कोई सन्तान न थी। इसलिए वे हमें पुत्र की तरह मानते थे। यथासाध्य उन्होंने हमें कुछ पढ़ाया-लिखाया भी था। मेरी माता का देहान्त मेरे बचपन में ही हो गया था। घर में पिताजी की एक वृद्धा चाची थी, वही हम दोनों बहिनों की देख-रेख किया करती थीं। साथ ही पिताजी को दूसरा विवाह कर लेने का परामर्श दिया करती थीं।पहले तो पिताजी इसके लिए राजी नहीं होते थे, परन्तु अन्त में अपने चाची तथा अन्यान्य शुभचिन्तकों के बहुत समझाने-बुझाने पर राजी हो गए।
विवाह हो गया, हमारी सौतेली मां घर आ गईं। साथ ही हम लोगों के लिए दुर्भाग्य भी लेती आईं। क्योंकि उनके आने के कुछ दिनों बाद से ही पिताजी के स्वभाव में विशेष परिवर्तन दिखाई देने लगा। अब वे पहले की तरह हम लोगों से स्नेह नहीं करते थे। हम लोगों के भरण-पोषण का भार भी सौतेली मां पर छोड़- कर निश्चिन्त हो गए। दादी अर्थात् पिताजी की वृद्धा चाची की भी अब कुछ नहीं चलती थी। हम सभी एक तरह से माताजी के गुलाम बन गए। उनकी आज्ञाओं का पालन करना और उनकी जली-कटी बातें बर्दाश्त करना हम लोगों का परम कर्तव्य हो गया। पिताजी उनके विरुद्ध एक शब्द भी सुनना नहीं चाहते थे। सुनकर भी कुछ प्रतिकार करने की शक्ति उनमें न थी। क्योंकि हमारी नवीन मां समय-समय पर उन्हें भी फटकार दिया करती थीं।
अन्त में बहिन का विवाह हो गया। और वे अपनी ससुराल चली गईं।बुढ़िया दादी का देहान्त हो गया। उस समय मेरी उम्र चौदह-पन्द्रह साल की