अब चाय कहां मिलेगी?
परन्तु जब पण्डितजी ने उसके प्रश्न का कुछ उत्तर देने के बदले भ्रू कुञ्चित करके उसकी ओर से अपना मुंह फेर लिया तो मैंने कहा-मुगलसराय आ गया है, वहां आपको चाय मिल जाएगी।
उसने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखकर पूछा-आप कहां जा रहे हैं ?
मैंने उत्तर दिया-दिल्ली।
इसके बाद और कई प्रश्न हुए। जैसे वहां आप क्या करते हैं ? निवास-स्थान कहां है ? आपका शुभ नाम ? इत्यादि ।
मैं बहुत थोड़े शब्दों में उसके प्रश्नों का उत्तर देता जा रहा था । इतने में गाड़ी आकर मुगलसराय के स्टेशन पर खड़ी हो गई। स्त्री ने एक हिन्दू चायवाले से एक कुल्हड़ चाय लेकर पी। इसके बाद एक सिगरेट जलाकर पीते-पीते बोली-पण्डितजी, आपका गाना तो बड़ा सुन्दर हो रहा था, परन्तु आपने बन्द क्यों कर दिया ? गाइए!
बेचारे पण्डितजी तो पहले से ही उसकी लापरवाही और बातचीत करने का ढंग देखकर नाक-भौं सिकोड़ बैठे थे । उसपर से गाने की फरमाइश सुनी तो और भी अप्रसन्न हुए और घृणासूचक दृष्टि से उसकी ओर देखकर मुंह फेर लिया।
पण्डितजी का यह भाव देखकर बड़ी मुश्किल से मुझे अपनी हंसी रोकनी पड़ी। थोड़ी देर के बाद मैंने पण्डितजी से पूछा-आखिर आप नाराज़ क्यों हो रहे हैं ?
उन्होंने क्रुद्ध होकर उत्तर दिया-चुप भी रहो । एक भ्रष्टा, कुलटा से बातें करते तुम्हें लज्जा भी नहीं आती ! राम-राम !
पण्डितजी की इस बात पर मैं तो मुस्कराकर चुप हो गया। परन्तु बेचारी रमणी कुछ खिन्न-सी हो गई और वेदना-भरे स्वर में बोली-हां पण्डितजी, मैं एक कुलटा स्त्री हूं, रण्डी हूं। भगवान ने मुझे इस अवस्था में डाल दिया है।
अन्तिम बात कहते-कहते उसकी आंखों से दो बूंद प्रांसू निकलकर उसके गुलाबी गालों पर लुढ़क गए।
मेरे लिए वह दृश्य बड़ा ही मर्मवेधी था, परन्तु पण्डितजी ने घृणा-व्यंजक हंसी के साथ मुझसे कहा-ओहो, देखा यह ढोंग !
अब मुझसे नहीं रहा गया। मैंने किंचित् भर्त्सना के साथ पण्डितजी से कहा-