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प्रतिशोध
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मैंने मुस्कराते हुए कहा--इसमें क्या सन्देह ।

इसके बाद मथुरा तो आपने देखा ही होगा। कानपुर कैसा शहर है? लखनऊ के नवाबों ने भी खूब ऐश किए। भई, सच पूछो तो नवाबी का आनन्द जैसे वाजिदअलीशाह ने लूटा वैसा शायद ही किसी वादशाह या नवाब को नसीब हुआ हो। इसके बाद स्वराज्य कब मिलेगा, आन्दोलन का क्या हाल है ? कलकत्ता में क्या हो रहा है ? इत्यादि।

तात्पर्य यह कि पण्डितजी का प्रत्येक प्रश्न एक विस्तृत विवरण का मुहताज था। मैं अपनी जानकारी के अनुसार उन प्रश्नों का उत्तर देता रहा। बीच-बीच में जिरह भी होती रही और प्रतिवाद भी।

दिल्ली एक्सप्रेस अपनी पूरी चाल से जा रहा था। मैं प्रकृति की शोभा देखता और पण्डितजी के गूढ़ प्रश्नों का यथासाध्य उत्तर भी देता जाता था । पण्डितजी ने पटना का वर्णन प्रारम्भ किया। उसका ऐतिहासिक विवरण भी सुनाने लगे और एक से एक कठिन प्रश्न भी करते जाते थे। अन्त में उनकी बातों और प्रश्नों से ऊबकर मैंने हैण्डबेग खोलकर 'विशाल भारत' की एक प्रति निकाली और पण्डित बनारसीदासजी चतुर्वेदी का लिखा हुआ 'श्रद्धेय गणेशजी' शीर्षक लेख पढ़ने लगा। अमर शहीद की पवित्र स्मृति ने हृदय में एक विचित्र स्पन्दन पैदा कर दिया। चतुर्वेदी जी के सीधे-सादे शब्दों में, आडम्बरहीन भाषा में एक गम्भीर वेदना भरी हुई थी। पढ़ते-पढ़ते मेरी आंखें छलछला उठीं। इतने में पण्डितजी ने पास ही पड़ी हुई 'माधुरी' की प्रति खींच ली और द्विजश्याम की 'गङ्गे' शीर्षक कविता उच्च स्वर से गा-गाकर पढ़ने लगे। हमारी गाड़ी मुगलसराय की ओर दौड़ रही थी। उसकी घड़घड़ाहट और पण्डितजी के पंचम स्वर ने एक विचित्र ध्वनि पैदा कर दी और दो यात्री जो पास की बेंचों पर मुंह छिपाए सो रहे थे, कुलबुलाने लगे।पहले एक वृद्धा ने रज़ाई से मुंह निकाला। इसके बाद दूसरी बेंच में दुशाला से मुंह निकालकर एक युवती ने चकित दृष्टि से पहले पण्डितजी की ओर फिर मेरी ओर देखा । महिला की दृष्टि में स्वाभाविकता थी। वह अंगड़ाई लेकर उठ बैठी और मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करके बोली--बाबूजी, क्षमा कीजिएगा। क्या पटना का स्टेशन निकल गया?

मैंने उत्तर दिया--हां, बड़ी देर हुई।

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने पण्डितजी की ओर देखकर प्रश्न किया--