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प्रतिशोध

वेश्या जैसे पापलिप्त व्यक्तियों के हृदय भी आघात से एकाएक बदल सकते हैं। 'प्रतिशोध' एक ऐसी ही कहानी है।

मैं रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करने के समय अपने सहयोगियों से बहुत कम बोलता हूं। आसपास के प्राकृतिक सौन्दर्य-दर्शन से जब जी उचटता है तो कोई पुस्तक पढ़ने लगता हूं या आंखें मूंदकर सो जाता हूं। इसलिए जब कलकत्ता से दिल्ली के लिए चलने लगा तो अलमारी से कुछ अच्छे उपन्यास और दो-तीन मासिक पत्र हैण्डबेग में रख लिए, ताकि कल सवेरे पटना से आगे की यात्रा प्रारम्भ होने पर साहित्य-चर्चा में ही समय बिता दूंगा। परन्तु मेरी यह भविष्य-चिन्ता बिलकुल बेकार साबित हुई। क्योंकि पटना जंकशन पर गाड़ी के डिब्बे का द्वार खोलकर अन्दर पैर रखते ही पंडित मुरलीधर ने उच्च स्वर से 'स्वागतम् महाभाग' कहने के पश्चात् प्रश्न किया-क्यों, कहां चले?

मैंने हाथ जोड़कर पंडितजी को प्रणाम करने के बाद कहा-मैं तो दिल्ली जा रहा हूं और आप?

'मैं भी कानपुर होकर मथुरा जाऊंगा। यमद्वितीया के अवसर पर विश्रामघाट पर स्नान होंगे। यहां एक मित्र से मिलने आया था। आप खूब मिले, आनन्द से यात्रा होगी।'

इसके बाद विस्तरा खोलकर उन्होंने खाली बेंच पर फैला दिया और इतमीनान से बैठकर सूंघनी सूंघने लगे। तीर्थ-स्थानों का प्रसंग छिड़ा। पंडितजी ने बाबा विश्वनाथ की पुरी का वर्णन प्रारम्भ किया। काशी तीन लोक से न्यारी है। कहने को तो लोग प्रयाग को तीर्थराज कहते हैं, शास्त्रों ने उसकी महिमा का भी बहुत बखान किया है। परन्तु काशी-सी चहल-पहल वहां कहां? काशी को देख लिया तो समझ लो कि सारे भारतवर्ष की सैर हो गई! क्यों आपकी क्या राय है?