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बड़नककी
 


लें; मुझे उज्र नहीं। मेरा वेश्या-शरीर उज्र कर ही नहीं सकता, फिर आपके प्रति तो मन भी खिंचता है परन्तु कृपाकर प्रेम की बात न कहें। भगवान आपकी उम्र बढ़ावे, आपका विवाह अभी हुआ है। आप बड़े घर के नौनिहाल हैं। बहूजी देवी हैं, वे आपके लिए पुत्र-रत्न जनेंगी। आप मेरी जैसी अपवित्र नारी के लिए यह सब सौभाग्य छोड़ देंगे? आप जैसा विवेकी...'

वसन्ती कह रही थी, युवक भौंचक सुन रहा था। वह सोच रहा था, यह वेश्या है या कोई महान देवी। उसने उसका हाथ पकड़कर कहा-वसन्ती, मैं अपना सन्देश कितनी ही बार भेज चुका हूं। आज मैंने मिलने का सुयोग पाया। तुम यदि मुझे वचन न दोगी तो मैं मर जाऊंगा। जल्दी करने को मैं नहीं कहता, मैं कल तुमसे उत्तर लेने को आऊंगा। ओह, अब तुम बाहर जाकर मेरे लिए सितार पर एक गत तो बजा देना। और देखो, कुछ और न समझकर, केवल यादगार के तौर पर ये तो तुम्हें लेनी पड़ेंगी। यह कहकर युवक ने चार मोहरें उसके हाथ पर धर दी और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए ही बाहर निकल गया।

वसन्ती अपने छोटे-से एकान्त कमरे में बैठी उस कोमल सुन्दर युवक का चिन्तन कर रही थी। कैसी सुन्दर दन्त पंक्ति, कैसा गौर वर्ण, कैसी स्वच्छ आंखें। हे परमेश्वर, इस पापी जीवन में यह रस देना भी तेरा काम है! क्या सचमुच वे आएंगे? उनकी विवाहिता पत्नी क्या उन्हें आने देगी? हाय रीअधम नारी जाति, क्या मैं 'पत्नी' शब्द की अधिकारिणी बन सकती हूं? परन्तु जाति, लोकमत और धर्म-बन्धन की अटूट दीवारें कैसे सामने खड़ी हैं। खैर जाने दो। मैं अधम वेश्या होकर भी यदि समाज के सामने न सही, परमेश्वर के सामने उनकी पत्नी हो सकूँ, वे मुझे प्यार कर सकें, अपना सकें, कभी न त्यागें, तो बहुत है, मेरे लिए बहुत है। इतना कहकर उसने वक्षःस्थल पर यत्ल से छिपाई हुई वे चारों मोहरें निकालकर हाथ में लीं। उन्हें बार-बार चूमा और फिर वह उनको छिपाने के यत्न में एक बार कमरे के चारों ओर देख गई। उसने उन्हें पलंग के चारों पायों के नीचे छिपा दिया।

अभी वह यह सब काम करके निश्चिन्त भी न हुई थी कि सीढ़ियों पर पदध्वनि सुनकर चौंकी। उसके रक्त की एक-एक बूंद नाचने लगी। वह मन ही मन बोली, अभी से आ गए? अभी तो आधे घण्टे का समय हुआ है। क्या उन्हें भी मेरे समान चैन नहीं पड़ता। ओह!-वह आनन्द से विह्वल हो गई।

परन्तु यह क्या! उसने दृष्टि उठाकर अन्दर प्रवेश करते हुए आगन्तुक को