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बड़नककी
३९
 


'बात क्या है, सो तो कहो।'

'घर में रुपया कितना है?'

'तुम्हें कितना चाहिए?'

'पचास लाख नकद।'

'पचास लाख और इस वक्त? पागल हो गई हो क्या?'

'बिना पागल हुए घर से निकल सकती थी?'

'आखिर मामला तो बताओ, क्या है?'

'कह दिया न, रुपये की ज़रूरत है। घर में कितना होगा?'

'दो-तीन लाख।'

'कल कुछ देना है?'

'कुछ नहीं।'

बड़नककी क्षण-भर खड़ी रही। उसने एकाएक सेठजी का हाथ पकड़ लिया, और कहा--मेरे साथ अभी आदमी भेज दीजिए, जो कुछ भी होगा, भेज दूंगी। आपको कल पचास लाख की हुण्डी भुगतान करनी पड़ेगी। तैयार रहिए, सर्वनाश की दुश्मनों ने पूरी तैयारी कर ली है। इतना कहकर बड़नककी ने कान में कुछ कहा।

सेठजी ने एक भेद-भरी दृष्टि से वेश्या को देखा। उन्होंने बड़े ज़ोर से उसका हाथ दबाकर कहा-बड़नककी, तुम्हारा एहसान अब इस बुढ़ापे में नहीं उतार सकता। जाओ, उस जन्म में उतारूंगा। तुम आराम करो, मैं सब भुगत लूंगा। तुम्हें रुपये के लिए तकलीफ करने की ज़रूरत नहीं।

सेठजी ने एक नौकर को पुकारकर बड़नककी को उसके मकान तक छोड़ आने का आदेश किया।

बड़नककी विशेष आग्रह न कर एक दृष्टि सेठ के वृद्ध, किन्तु स्निग्ध नेत्रों में फेंककर चल दी।

'अभी साहेब सोते हैं, मुलाकात नहीं होगी।'

'मगर मेरा काम बहुत ज़रूरी है।'

'मुझे जगाने का हुक्म नहीं है।'

'मैं बिना मिले जा नहीं सकता।'