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बड़नककी
 


कहा--एक गिलास तुम भी पियो।

'जी नहीं, मैं नहीं पिया करती।'

'यह क्यों, तुम्हारे ठाकुर साहब तो सदा पीते हैं।'

'जी हां, पर मैं नहीं पीती।'

'पगली बेटी, ऐसी नियामत पिए बिना रहा जा सकता है।'

बड़नककी ने गिलास भरा। बालिका के होंठों से लगा दिया, बालिका पी गई। इसके बाद बालिका को प्यार से चूमकर बड़नककी ने कहा-वसन्ती, तुम किसी दिन बड़ा नाम कमाओगी। अच्छा, अब काम की बात सुनो। देखो यह कसबन का घर है। अपना-अपना कर्म अपना-अपना धर्म। मैं चाहती हूं कि किसी लखपती को तुम्हें सौंपकर तुम्हें खुश देखूं। अभी जो सरदार आनेवाले हैं, अजमेर तो क्या, मारवाड़ में उनके सा सुन्दर जवान नहीं है। कैसे वांके जवान हैं कि वाह! उम्र भी बीस-इक्कीस के इतनी ही है। रंग जैसा कुन्दन का, वाणी जैसे फूल बरसते हैं, दांत जैसे मोती, छरहरा बदन, कैसा प्यारा जवान है। तुझे बेटी, उनकी सब तरह खातिर करनी होगी। लजाने-शर्मा ने से काम नहीं चलेगा। समझी? अच्छा, ऊपर जाकर जरा देख पाओ, नाश्ता और खाने-पीने का सब सामान तैयार है न? पर देखना, जो वे बहुत इसरार करें तो पी लेना। ज्यादा ना नूं इन रईसों को पसन्द नहीं। जाओ, उस कमरे में शराब, गिलास और नाश्ता सब ठीक-ठीक चुनवा दो।

बालिका नीची गर्दन किए सुनती रही और फिर धीरे से चली गई।

बड़नककी ने उसकी ओर देखा और धीरे-धीरे सिर हिलाकर मुस्कराई। इतने में एक सेवक ने चिट्ठी लाकर दी। उसमें लिखा था : प्रिये!

खेद है, मैं न आ सकूँगा। आज तुम्हारी बात रखना असम्भव है। ऐसा भी विश्वास नहीं होता कि फिर कभी तुमसे मुलाकात होगी। बहूजी आ गई हैं, और उनकी पवित्रता, भोलापन और सौंदर्य देखकर मैंने मन में कुकर्म त्यागने और चरित्र सुधारने का दृढ़ संकल्प कर लिया है। कृपाकर अब उस भोली मूर्ति को दिखाकर ही मुझे लालच में न फंसाना। मैं तुम्हारा प्रतिपालन वैसे ही करता रहूंगा। पर देखना, ऐसा काम कोई न करना कि मेरा नाम तुम्हारे घर के साथ लिया जा सके।