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बड़नककी
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बड़नककी आदि सर्वत्र फैली हुई थीं। इन सब धन्धों में लाखों रुपयों की सम्पत्ति उसके पास उमड़ी चली आती थी। इस सघन व्यापार को करते बड़नककी अपने यौवन का पूरा मोल-तोल ले-लिवाकर प्रौढ़ा बनी थी। पर उसका धंधा वैसे ही जोरों पर था। दस-बारह अनिंद्य सुन्दरियां सभी नमूनों की उसके महल में सजीव पुतलियों की भांति बनी रहती थीं-मारवाड़ का कोई भी रईस छैला उन ड्योढ़ियों में घुसकर बिना दिए और बिना छके बाहर न निकल सकता था।

शीतकाल की सन्ध्या थी। सात बज चुके थे। धुंधला अंधकार सर्वत्र व्याप्त हो गया था। बड़नककी स्नान-उवटन करके बन-ठनकर बैठी थी। उसका रंग गौरवर्ण, शरीर मांसल, त्वचा साफ और चमकीली, आंखें अनीदार, होठ उत्फुल्ल और खड़ी होने की धज निराली थी। स्वास्थ्य भी उसका खूब था, चालीस वर्ष की उम्र होने पर भी उसमें सिवा कुछ स्थूलता उत्पन्न हो जाने के उसके रूप में अन्तर नहीं पड़ा था। वह एक हलकी दुलाई ओढ़े हुक्के की नली मुंह में दबाए, गद्दे पर मसनद के सहारे बैठी थी। नौकर-चाकर बड़े यत्न से कमरे को सजा रहे थे। रंगीन हांडियों में काफ़री बत्तियां जल रही थीं। धीमी और सुगन्धित वायु से कमरा महक रहा था। सब कुछ ठीक-ठाक करके उसने नौकर को आवाज देकर कहा-वसन्ती यदि कपड़े बदल चुकी हो तो उसे ज़रा यहां भेज दो।

वसन्ती ने सहमते-सहमते कमरे में प्रवेश किया। बड़े दुलार से बड़नककी ने कहा-बेटी, देखो, इस पोशाक में तुम कितनी अच्छी लगती हो। पर देखो, बण्डी इस तरह नहीं पहना करते। तुमने तमाम गर्दन और कान ही ढक लिया। वाह, यह कैसा भद्दापन है। सिर का पल्ला जरा पीछे रखा करो। चूंघट का इस घर में काम नहीं। और हां देखो, वह मेरा कश्मीरी नया शाल निकाल लो। वह तुम्हारा हुआ। पर इतनी सुस्त क्यों हो? क्या पराए घर हो? घर तो तुम्हारा है। खुश रहो, खाओ, खेलो, मौज करो। औरों को नहीं देखतीं क्या? अच्छा देखो, उस मसनद पर बैठो तो सही। नहीं, इस तरह नहीं, सिकुड़ती क्यों हो? हां, अब ठीक है। अच्छा ज़रा इस बोतल और गिलास को तो उठा लाओ।

बालिका ने विनम्र भाव से बोतल-गिलास बड़नककी के सामने धर दिए। बड़नककी ने अधिकार के स्वर में कहा-गिलास भरो बेटी!

बालिका ने गिलास भरा। बड़नककी ने उसे हाथ में लेकर पी लिया और